जयप्रकाश नारायण | Jaiprakash Narayan

जयप्रकाश नारायण | Jaiprakash Narayan, एक उत्कट व अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी तथा एक उत्साही समाज सुधारक जयप्रकाश नारायण को लोग ‘लोकनायक’ के रूप में याद करते हैं। उनका जन्म 11 अक्टूबर, 1902 को बिहार के सिताबदियारा गांव में, जो अब उत्तर प्रदेश में है, हुआ था। अपने विद्यार्थी जीवन में वह एक मेधावी छात्र थे। अपने गांव के स्कूल से प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होंने पटना से हाई स्कूल की परीक्षा पास की तथा ‘स्वर्ण पदक’ एवं छात्रवृत्ति प्राप्त की। 1921 में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण अस्थायी रूप से कुछ दिन के लिए अध्ययन कार्य को छोड़ दिया। 1922 में वे अमेरिका गये तथा ओहियो विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री प्राप्त की ।

Jaiprakash Narayan
1पूरा नाम जयप्रकाश नारायण | Jaiprakash Narayan
2पिता का नाम हरसू दयाल श्रीवास्तव
3माता का नाम फूल रानी देवी
4पत्नी का नामप्रभावती देवी
5जन्म तिथि 11 अक्टूबर 1902
6जन्म स्थान बिहार के सिताबदियारा गांव में, जो अब उत्तर प्रदेश में
7मृत्यु8, अक्टूबर 1979
8जेल जाने की तिथि7 मार्च 1940
9शैक्षिक योग्यता ओहियो विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री
10पुरस्कार रेमन मैग्सेसे, भारत रत्न
11नागरिकता भारतीय
12पार्टी का नाम भारतीय राष्ट्रिय काग्रेस, जनता पार्टी

जीवन परिचय ( About Jaiprakash Narayan )

जयप्रकाश नारायण आरम्भ में ‘मार्क्सवादी दर्शन’ से विशेष रूप से प्रभावित थे। भारत वापस आने के बाद वह मजदूरों की समस्याओं के निदान हेतु कार्य करते रहे और ‘साम्यवादी समूह’ में सम्मिलित हो गये। उन्होंने जमींदारी प्रथा समाप्त करने की वकालत की तथा बड़े-बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण पर बल दिया। उनके सामाजिक उत्साह की महत्ता को देखते हुए नेहरू ने उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिए आग्रह किया तथा श्रम विभाग का उत्तरदायित्व संभालने के लिए निमंत्रण दिया। जयप्रकाश नारायण ने उनके निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। उसके बाद वह सक्रिय रूप से स्वतंत्रता संग्राम के धर्मयुद्ध में कूद पड़े। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल की यात्रा करनी पड़ी। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने ‘अखिल भारतीय समाजवादी पार्टी’ की स्थापना की।

1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में पुनः सक्रिय रूप से भाग लेने पर जयप्रकाश नारायण को ब्रिटिश सरकार ने जेल में बंद कर दिया।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जयप्रकाश नारायण ने सक्रिय राजनीति में भाग लेना छोड़ दिया। फिर भी, सामाजिक सुधार के क्षेत्र में अपना संघर्ष जारी रखा तथा विनोबा भावे के ‘भूदान आंदोलन’ में सक्रिय योगदान देना शुरू कर दिया। 1974 में आपातकाल के दौरान उन्होंने एक बार पुनः भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में प्रवेश किया तथा देश में प्रचलित लोकतंत्र की पुनः बहाली के लिए एक नये तरह के आंदोलन का समर्थन किया। वे ‘जनता पार्टी’ की स्थापना के मुख्य सूत्रधार थे। उनके इस आंदोलन की लहर बिहार के विद्यार्थियों से शुरू होकर पूरे देश में जंगल के आग की तरह फैल गई। इसके परिणामस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इन्हें जेल में बंद करवा दिया तथा गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाने के कारण 12 नवम्बर, 1975 को इन्हें रिहा किया गया।

Jaiprakash Narayan की भूमिका लेखन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण रही है। वे सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक समस्याओं से संबंधित बहुत-सी पुस्तकों की रचना कर महान भारतीय लेखकों की पंक्ति में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में जोड़ गए हैं। 8 अक्टूबर, 1979 में इनका देहांत हो गया।

आधुनिक लोकतन्त्र

जयप्रकाश नारायण आधुनिक लोकतन्त्र के कटु आलोचक थे। उनके विचारानुसार वर्तमान राजनीति बिखरती जा रही है। दलों के आदर्शों में विस्तार की अपेक्षा उनके आदर्शों का अवमूल्यन, विधायकों का क्रय-विक्रय, स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण, दल की आंतरिक अनुशासनहीनता, व्यक्तिगत अथवा विशिष्ट हितों की रक्षार्थ दल-निष्ठा में परिवर्तन तथा सरकार की अस्थिरता आदि आधुनिक समय के प्रमुख विचारणीय प्रश्न हैं।

Jaiprakash Narayan ने लोकतन्त्र की प्रमुख समस्या मूल रूप से एक नैतिक समस्या बताई है। उनके विचारानुसार , लोकतन्त्र के अंतर्गत संविधान, शासन प्रणाली, दल एवं चुनाव इत्यादि महत्वपूर्ण तथ्य हैं, किन्तु इन तथ्यों के वांछित फल की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि जनता में आध्यात्मिक गुणों एवं नैतिक मूल्यों का समुचित विकास नहीं हो जाता। किसी भी देश में लोकतन्त्र केवल उसी स्थिति में सफल हो सकता है जबकि उसके नागरिक सत्य, अहिंसा, स्वतन्त्रता, सहयोग, अन्याय के अहिंसक प्रतिरोध तथा सह-अस्तित्व, कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व की भावना तथा सीधे एवं सरल जीवनयापन करने में अगाध विश्वास करते हों। उनका विचार था कि सार्वजनिक हितों के समक्ष व्यक्तिगत हितों को गौण समझे बिना, अपनी इच्छाओं, भावनाओं और आवश्यकताओं को क्रमशः नियंत्रित एवं सीमित किए बिना तथा राजनीतिक आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण लाए बिना सच्चे लोकतंत्र की स्थापना नहीं की जा सकती।

Jaiprakash Narayan आधुनिक संसदीय पद्धति के पक्षधर नहीं थे। उनके विचार में संसदात्मक पद्धति दलगत राजनीति के अनुसार कार्य करती है, जिसके अंतर्गत शक्तिशाली केन्द्र-नियंत्रित दलों द्वारा प्रचुर धन एवं कपटपूर्ण साधनों भ्रष्टाचार फैलाया जाता है। मतदाताओं की अपेक्षा दलों एवं प्रचार साधनों के पीछे निहित शक्तियों एवं हितों का प्रतिनिधित्व होता है तथा नौकरशाही दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होती जाती है और सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर जनता की निर्भरता बढ़ती जाती है। वर्तमान में प्रशासन का आचार व्यवहार ‘सेवक’ का न होकर ‘स्वामी’ का होता जा रहा है। पुनश्चः जयप्रकाश नारायण आधुनिक लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की भूमिका के कटु आलोचक थे। इस संदर्भ में उनका अभिमत था कि राजनीतिक दल जनता के नैतिक चरित्र का पतन तो करते ही हैं साथ ही स्वतन्त्र चिन्तन, विचार एवं अभिव्यक्ति का वातावरण भी जनता को प्राप्त नहीं हो पाता।

Jaiprakash Narayan आधुनिक लोकतंत्र के साथ-साथ आधुनिक निर्वाचन प्रणाली के भी विरोधी थे। उनका यह विश्वास था कि निर्वाचनों से जनता को किसी प्रकार की नियन्त्रणकारी सत्ता प्राप्त नहीं होती और न ही इनसे किसी प्रकार की वास्तविक शिक्षा ही प्राप्त होती है। उनके विचार में देश की गम्भीर राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं के शान्तिपूर्ण समाधान हेतु आम चुनाव पद्धति को समाप्त किया जाना अत्यावश्यक है। स्थानीय स्वशासन के केन्द्र एवं सत्ताओं तथा सरकार के विभिन्न अंगों में वैधानिक एवं चेतनात्मक संबंध जब तक स्थापित नहीं होंगे तब तक शक्ति का हस्तांतरण एवं प्रशासन का विकेन्द्रीकरण नहीं हो सकता। उनके विचारानुसार, राज्य का ढांचा जिन राजनीतिक इकाइयों पर आधारित होना चाहिए वे यथार्थ में ग्रामीण समाज हैं, न कि यत्र-तत्र बिखरे हुए मतदाता। भारतीय लोकतन्त्र की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्या मनुष्य को मनुष्य के सम्पर्क में लाने की है ताकि वे विवेकपूर्ण, परस्पर सार्थक तथा नियन्त्रणीय संबंध रखते हुए साथ-साथ रह सकें।इस प्रकार, स्पष्ट है कि जयप्रकाश नारायण आधुनिक लोकतन्त्र एवं आधुनिक दलगत राजनीति का विरोध करते हुए दल-निरपेक्ष लोकतन्त्र का समर्थन करते हैं ।

लोकतन्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यही है कि जनता अपने मामलों का जहां तक हो सके स्वयं प्रबंध करे। अतः मतदाताओं के कर्तव्य की मतदान के साथ ही इतिश्री नहीं हो जाती, अपितु मतदाताओं एवं निर्वाचित प्रतिनिधि के मध्य नियमित सम्पर्क रहना चाहिए ताकि वे एक-दूसरे के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन भली-भांति कर सकें।

जनतन्त्र समाज की स्थापना

जनतन्त्र समाज की स्थापना जयप्रकाश नारायण ने 13 अप्रैल, 1974 में एक निर्दलीय संगठन के रूप में की थी।

जनतन्त्र समाज के अंतर्गत निम्नलिखित मुद्दे सम्मिलित किए गए थेः

(1) लोकतन्त्र एवं स्वाधीनता के संदर्भ में जन-साधारण में चेतना जाग्रत करना तथा दल-बदल विधेयक के आपत्तिजनक मुद्दों का विरोध;

(2) वर्तमान निर्वाचन के विकल्प की खोज

;(3) चुनावों में निष्पक्षता एवं ईमानदारी;

(4) शांतिमय एवं विधि सम्मत तरीकों से आवश्यकतानुसार विरोध एवं प्रदर्शन;

(5) समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करना;

(6) लोगों में नागरिक स्वतन्त्रता के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना;

(7) प्रादेशिक भाषाओं के समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं की स्वतन्त्रता की रक्षार्थ यथासंभव प्रयास करना;

(8) सभी के लिए एकसमान नागरिक अधिकार संहिता हेतु प्रयास करना;

(9) सार्वजनिक जीवन से अस्पृश्यता एवं जातिवाद जैसी बुराइयों को दूर करना, तथा

(10) शांतिपूर्ण एवं लोकतंत्रात्मक उपायों से जनता के सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए यथासंभव प्रयास करना ।

यद्यपि जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में गठित यह जनतन्त्र समाज, वर्तमान में अस्तित्वमान नहीं है, तथापि, ‘दिशा-बोधक’ रूप में इसके महत्व को कम करके आंका जाना अथवा उसकी उपेक्षा किया जाना सर्वथा अनुचित होगा ।जयप्रकाश नारायण एवं समाजवादजयप्रकाश नारायण अपने राजनीतिक जीवन के आरंभिक चरण में मार्क्सवाद से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने भारतीय समाज का विश्लेषण मार्क्सवादी दृष्टिकोण से करना आरम्भ कर दिया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारतीय समाज में व्याप्त निर्धनता का मुख्य कारण केवल विदेशियों द्वारा किया गया आर्थिक शोषण ही नहीं है, अपितु, भारतीय जनता के शोषण में भारतीय पूंजीपति वर्ग का भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। वे वैज्ञानिक समाजवाद एवं इसकी विकासवादी प्रकृति में विश्वास रखते थे। उनके लिए समाजवाद से अभिप्राय उत्पादन एवं वितरण के समस्त साधनों पर सामूहिक स्वामित्व एवं सभी लोगों के लिए समान अवसरों की प्राप्ति से था ।जयप्रकाश नारायण इस तथ्य से परिचित थे कि राजनीतिक स्वतंत्रता कीप्राप्ति के बिना समाजवादी कार्यक्रमों को लागू नहीं किया जा सकता।

उन्होंनेदेश में कृषि विकास पर अत्यधिक बल दिया। उन्होंने सहकारी कृषि (coop-erative farming) का सुझाव दिया। देश में अर्थव्यवस्था के संतुलन हेतुवे राज्य के साथ-साथ सामुदायिक स्वामित्व वाले उद्योग लगाने के पक्ष में थे।उन्होंने भारत के विकास हेतु कृषि औद्योगिक अर्थव्यवस्था का सुझाव दिया।उन्होंने अर्थव्यवस्था के विकास की योजना में काफी योगदान दिया।बाद में, जयप्रकाश नारायण ने मार्क्सवाद का त्याग कर दिया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मार्क्सवादी समाजवाद जन-साधारण की समस्याओं को दूर करने में सक्षम नहीं है। उन्होंने यह अनुभव किया कि समाजवादी व्यवस्था में राज्य पूंजीवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया है। उन्होंने रूसी सर्वसत्तावाद की तीव्र आलोचना की। स्वाधीनता प्राप्ति के उपरांत वे सर्वोदय आंदोलन की ओर अभिमुख हुए।

जयप्रकाश नारायण इस तथ्य से सहमत थे कि मुख्य समस्या उत्पादन नहीं अपितु केन्द्रीयकरण है। अतः उन्होंने विकेन्द्रीकरण की वकालत की। उन्होंने राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त एक संगठिक राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था का सुझाव रखा। उन्होंने पिरामिडाकार राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की कल्पना की। वे समाजवाद को सामाजिक-आर्थिक पुननिर्माण के सम्पूर्ण सिद्धांत के रूप में समझते थे। उनके विचार में समाजवाद व्यापक योजनाओं के लिए एक सिद्धांत एवं तकनीक के रूप में था।

जयप्रकाश नारायण द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनके विचार में मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद असमानता के कारणों में किसी समाजवादी पूछताछ हेतु आधार उपलब्ध कराता है।

जयप्रकाश नारायण ने 1934 में अखिल भारतीय कांग्रेस समाजवादी दलहेतु निम्नलिखित 15 सूत्रीय कार्यक्रम

1. समस्त शक्तियां उत्पादक जन साधारण को सौंप दी जानी चाहिए।

2. देश का आर्थिक विकास नियोजित हो तथा जिस पर नियंत्रण राज्य का हो।

3. उत्पादन, वितरण तथा विनिमय के सम्पूर्ण साधनों को दृष्टिगत रखतेहुए प्रमुख एवं अतिमहत्वपूर्ण उद्योगों का समाजीकरण

4. विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार हो।

5. उत्पादन एवं वितरण हेतु सहकारी संगठन हों तथा आर्थिक जीवन के असामाजिक क्षेत्र में इसका समर्थन किया जाए।

6. राजाओं, जमींदारों एवं अन्य शोषणकर्ता वर्गों का बिना कोई क्षतिपूर्तिदिए निराकरण किया जाए।

7. किसानों का भूमि का पुनर्वितरण ।

8. राज्य द्वारा सहकारी एवं सामूहिक कृषि को प्रोत्साहन ।

9. कृषकों एवं श्रमिकों के ऋणों का पुननिर्धारण।

10. राज्य द्वारा कार्य के अधिकार को मान्यता देना अथवा उसे बनाएरखना।

11. प्रत्येक को उसकी आवश्यकता एवं उसकी वस्तुओं के अंतिम उत्पादन के आधार पर वितरण । क्षमतानुसार आर्थिक

12. प्रकार्यात्मक आधार पर सार्वभौमिक वयस्क अधिकार।

13. राज्य द्वारा किसी धर्म विशेष को न तो समर्थित किया जाएगा और न ही धर्मों के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव किया जाएगा।

14. राज्य द्वारा लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं बरता जाएगा।

15. तथाकथित भारत के सार्वजनिक ऋण से इंकार ।जयप्रकाश नारायण ने भू-राजस्व, उद्योगों के राष्ट्रीयकरण एवं उपभोग व्यय को कम करने के लिए अपनी आवाज उठाई।

1940 में उन्होंने बड़े पैमाने पर होने वाले सभी उत्पादनों पर सामूहिक स्वामित्व एवं नियंत्रण की वकालत की। उन्होंने राज्य द्वारा भारी यातायात, जहाजरानी, खनन एवं भारी उद्योगों (Heavy Industries) का राष्ट्रीयकरण किए जाने पर बल दिया।जयप्रकाश नारायण ग्रामों के पुनर्संगठन के पक्ष में भी खड़े हुए। उनके विचार में सहकारिता एवं योजनाओं का सही लाभ केवल उसी स्थिति में प्राप्त हो सकता है जबकि कृषि एवं उद्योगों के मध्य पर्याप्त संतुलन हो।

अगस्त 1946 में जयप्रकाश ने ग्राम राज की स्थापना हेतु निम्नलिखित 13 सूत्री रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत कियाः

1. कांग्रेस के सदस्यों का नामांकन किया जाए। प्रत्येक वयस्क ग्रामीण का नामांकन किया जाए। सभी नामांकित सदस्यों की बैठक होनी चाहिए।

2. एक सांस्कृतिक केन्द्र खोला जाना चाहिए जहां समाचार-पत्र पढ़े जा सकें तथा अन्य प्रकार की गतिविधियां, जैसे- वयस्क साक्षरता, नाट्य शास्त्रों, लोक गीतों, अध्ययन समूहों, पुस्तकालयों, कृषि परामर्श संबंधी चर्चा-परिचर्चा इत्यादि की जा सके।

3. सेवादल एवं अखाड़ा कार्य लागू किया जाए।

4. सफाई, सड़कों, बांधों इत्यादि से संबंधित समस्याओं का व्यावहारिक ढंग से मुकाबला।

5. अस्पृश्यता विरोधी कार्य ।

6. साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने हेतु कार्य।

7. मद्य-निषेध ।

8. परिस्थितियों का निरीक्षण ।

9. शिकायतें दूर करना।1

0. अनाज बैंक हेतु कोष प्रदान करना।

11. पड़ोसी गांवों में प्रचार करना ।

12. सहकारिता बाजार।

13. महिलाओं एवं बच्चों के साथ मिलकर कार्य करना ।

जयप्रकाश नारायण ने राज्य द्वारा अपने उद्योग खोले जाने के सुझाव के साथ ही उद्योगों पर नगरीय अथवा सामुदायिक स्वामित्व पर बल दिया। जयप्रकाश नारायण एवं शांतिजयप्रकाश नारायण ने सदैव विश्व शांति एवं अन्य राष्ट्रों के साथ अच्छे मित्रतापूर्ण संबंधों की वकालत की। उन्होंने साम्यवाद, साम्राज्यवाद, फासीवाद एवं अन्य विस्तारवादी नीतियों पर आधारित व्यवस्थाओं की कटु आलोचना की। उन्होंने स्व-निर्धारण, असंलग्नता एवं अहस्तक्षेप के सिद्धांतों को महत्व दिया।

उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के लिए युद्ध को एक साधन की भांति उपयोग करने की कड़ी निंदा की। उन्होंने सदैव बड़ी शक्तियों द्वारा छोटे देशों के मामलों में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति की निंदा की। उन्होंने शस्त्रीकरण की अन्धी दौड़ की भी आलोचना की। गांधी एवं उनके राष्ट्रवादी आदर्श के सच्चे अनुयायी होने के कारण जयप्रकाश नारायण ने कभी भी उग्र राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया तथा अंतरराष्ट्रीय ढांचे के भीतर उन्होंने विश्व शांति से संबंधित अपने विचार अभिव्यक्त किए।जयप्रकाश नारायण ने शांति, निःशस्त्रीकरण जैसे विवादों के सौहार्दपूर्ण समाधान तथा देशों के मध्य मित्रतापूर्ण सम्बन्धों की वकालत की।

1950 के दशक में उन्होंने विश्व में गुटनिरपेक्षता के विकास को प्रोत्साहित किया। 1960 के दशक में उन्होंने चतुर्थ विश्व की संकल्पना का विकास किया। उन्होंने छोटे देशों के लिए स्व-निर्धारण एवं सामान्य निःशस्त्रीकरण सम्बन्धी त्वरित एवं प्रभावी कदम उठाए जाने पर बल दिया।जयप्रकाश नारायण अंतरराष्ट्रीय निःशस्त्रीकरण जिसके अंतर्गत सभी आणविक, रासायनिक एवं जैविक हथियारों को समाप्त किया जाए, में विश्वास रखते थे; इसके साथ ही वे भारत के लिए एकपक्षीय निःशस्त्रीकरण में विश्वास रखते थे।

1950 में Jaiprakash Narayan ने कोरिया में अमेरिकी आक्रमण की यह कहते हुए निंदा की कि विश्व की दो महाशक्तियों, सोवियत रूस एवं अमेरिका, एक-दूसरे के विरुद्ध आमने-सामने खड़े हैं तथा कोरिया तो इनके खेल का एक प्यादा मात्र है। उनका अभिमत था कि प्रत्येक देश स्वतन्त्र है तथा किसी भी देश को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी अन्य देश पर आक्रमण करे अथवा उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करे। उन्होंने भारत एवं पाकिस्तान के लोगों के मध्य मित्रतापूर्ण संबंधों एवं भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित किया।

1965 में उन्होंने कश्मीर में पाकिस्तानी आक्रमण की निन्दा की।जयप्रकाश नारायण ने चीनी आक्रमण का सामना गुटनिरपेक्षता से करने हेतु वकालत की। उन्होंने भारत सरकार को यह सुझाव प्रेषित किया कि सैन्य वियोजन हेतु भारतीय सेना का एकपक्षीय निःशस्त्रीकरण किया जाए तथा हिंसक हथियारों के स्थान पर अहिंसा के शस्त्र को धारण किया जाए। चीनी आक्रमण के समय उन्होंने अहिंसात्मक पद्धति पर बल दिया।

जयप्रकाश नारायण के अनुसार भारत का किसी भी शक्ति गुट में शामिल होना शांति के सिद्धांत को खतरे में डालना होगा। भारत एवं चीन के मध्य सीमा विवाद निष्पक्ष जजों अथवा विवाचकों, जिन पर दोनों पक्ष पूर्ण विश्वास करते हों, को सौंप देने के पक्ष में थे। उन्होंने दिल्ली से पीकिंग (Delhi to Peking) तक एक शांति यात्रा का आयोजन किया।बांग्लादेश में होने वाले भीषण नरसंहार के विरोध में अंतरराष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से जयप्रकाश नारायण ने विश्व के प्रमुख पूंजीवादी देशों का दौरा किया। उन्होंने बांग्लादेश को तत्काल मान्यता प्रदान किए जाने की वकालत की। Jaiprakash Narayan

सर्व सेवा संघ एवं गांधी शांति संघ की ओर से उन्होंने 16 मई से 27 जून, 1971 तक काहिरा, रोम, मास्को, बेलग्रेड, स्टॉकहोम, पेरिस, बॉन, वाशिंगटन, लन्दन, न्यूयॉर्क, वैन्कुवर, ओट्टावा, टोकियो, कुआलालाम्पुर, जकार्ता एवं सिंगापुर की शांति यात्राएं की। उन्होंने महाशक्तियों पर नियंत्रण रख पाने में असफल संयुक्त राष्ट्र संघ की आलोचना की। उन्होंने मानवीय स्वतन्त्रता की रक्षा तथा राज्यों की स्वतन्त्रता एवं सुरक्षा के लिए विश्वसनीय मार्ग ढूंढने पर बल दिया। Jaiprakash Narayan

भूदान आंदोलन1950 के दशक के आरम्भ में जयप्रकाश नारायण दो विपरीत विषय-वस्तुओं से प्रभावित थे; प्रथम, वे समाजवादी दल से सम्बन्धित थे, जो कि उचित पृथक् नेतृत्व के अभाव में धीरे-धीरे कमजोर पड़ता जा रहा था; द्वितीय, विनोबा भावे के भूदान आंदोलन का आकर्षण चरणबद्ध रूप से वे अपने दल से होते गए तथा स्वयं को उन्होंने भूदान आंदोलन से संबंधित कर लिया। उनके विचार में भूदान आंदोलन भूमि के पुनर्वितरण की शांतिपूर्ण पद्धति ही नहीं थी अपितु दलविहीन लोकतंत्र की नींव था, जिसका निर्णय सर्व सम्मति से ग्राम पंचायत के मॉडल के रूप में लिया जा चुका था।

उन्होंने अहिंसा को सामाजिक परिवर्तन के लिए एक प्रभावी यंत्र बताया किंतु यह मार्क्सवादी और संसदीय लोकतन्त्र में दिखाई नहीं देता। Jaiprakash Narayan ने अति उत्साह के साथ भूदान, ग्रामदान एवं ग्राम स्वराज पर बोलना आरंभ कर दिया। इसे गहराई से देखने वालों के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण आंदोलन था। यह मानव एवं समाज में चौतरफा आमूल परिवर्तन हेतु आरम्भ किया गया था क्योंकि इसका उद्देश्य समाज के साथ-साथ मनुष्य के भीतर भी परिवर्तन लाना था।

यह आंदोलन गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित था। भूदान जीवन के विचारों एवं मूल्यों के नवीन स्वरूप के रूपांतरण एवं सृजन हेतु बड़े पैमाने पर होने वाला जन-आंदोलन था। यह असमानता एवं शोषण पर आधारित व्यवस्था पर एक आक्रमण था । इसने मनुष्य को इस बात की शिक्षा दी कि जो कुछ उसके पास है वह उसे अपने सहयोगियों के मध्य बांट दे। ग्रामदान की सुंदर परिकल्पना के अंतर्गत स्वामित्व की समाप्ति बल प्रयोग के माध्यम से नहीं, अपितु, समुदाय को स्वतन्त्र रूप से समर्पण द्वारा की जानी थी। मानव के अंतःकरण में परिवर्तन से ही समाज में बाह्य परिवर्तन दृष्टिगोचर होगा। यह गांधी जी के द्वि-क्रांति (double revolution) विचार का उदाहरण था। मुक्त सामूहिक पहल एवं प्रयास से सामाजिक तनाव, विवादों तथा अत्याचार के स्थान पर स्वतन्त्रता, पारस्परिक सद्भावना एवं समानता जैसे अभूतपूर्व निर्गतों की प्राप्ति संभव हो सकती है।जयप्रकाश नारायण गांधी जी के विचारों के कट्टर समर्थक थे ।

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