Mahatma Gandhi | मोहनदास करमचन्द गांधी

Mahatma Gandhi ,मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात राज्य के एक छोटे से शहर पोरबन्दर में हुआ था। इनके पिता का नाम करमचन्द तथा माता का नाम पुतलीबाई था। गांधी जी के पिता पोरबंदर, राजकोट तथा बांकानेर रियासतों के दीवान रहे। इनकी प्रथमिक शिक्षा राजकोट में हुई तथा 1881 में इनका विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ।

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1884-85 में कुसंगतिवश इन्होंने चोरी-छिपे मांस भक्षण किया किंतु इनका सत्यवादी मन इसे छिपा नहीं सका और अपने माता-पिता के समक्ष अपने इस कृत्य के लिए क्षमायाचना कर प्रायश्चित किया अर्थात् असत्य को त्याग कर उन्होंने सत्य का अंगीकरण किया।

Mahatma Gandhi ji की शिक्षा

गांधी जी 7 वर्ष की आयु में स्कूल गये। उन्होंने 1888 में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की और उच्च शिक्षा के लिए भावनगर गये लेकिन वे वहां पर जम नहीं पाये। उस समय उनके एक मित्र मावजी दवे ने गांधी जी को इंग्लैंड जाने का परामर्श दिया।

Mahatma Gandhi जी 4 सितम्बर, 1888 को बैरिस्टर की पढ़ाई हेतु बम्बई से इंग्लैंड गए। आरंभ में वे एक भद्र अंग्रेज पुरुष जैसे दिखने के लिए बहुत चिन्तित थे और इसलिए उन्होंने 3 महीने तक नाच, फ्रांसीसी भाषा एवं अच्छा भाषण देने की कला सीखने का प्रयास किया, लेकिन इस क्षेत्र में वे असफल रहे। इसके बाद उन्होंने सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करने, भोजन स्वयं बनाने व पढ़ाई के प्रति ध्यान देना आरंभ किया।

आरम्भ में इंग्लैंड के वातावरण के अनुसार ढलने में विफल रहने के उपरांत उन्हें शराब, स्त्री तथा मांसाहार से दूर रहने के अपनी माताजी को दिए अपने तीन वचनों की याद आई तथा उन्होंने इसके लिए पश्चाताप भी किया और शाकाहार को अपने जीवन का अंग बना लिया।

Mahatma Gandhi जी ने ब्रह्मवादियों को अपना मित्र बनाया व श्रीमती एनी बेसेन्ट और मादाम बलावत्सकी से परिचित हुए। इस प्रकार उनका झुकाव भारतीय दर्शन व धार्मिक पुस्तकों की ओर हुआ। उन्होंने बाइबल का अध्ययन किया और एक नया अनुभव प्राप्त किया तथा वे उसके दर्शन से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने एडविन आर्नोल्ड की पुस्तकों सांग ऑफ सिलेस्टल तथा लाइट ऑफ एशिया का गहन अध्ययन किया।

Mahatma Gandhi जी ने भागवत गीता को आध्यात्मिक कोष के रूप में देखा। भिन्न-भिन्न धर्मों व सम्प्रदायों के लोगों के सम्पर्क में आने तथा अनेक प्रकार की धार्मिक पुस्तकें पढ़ने के बाद गांधी जी ने कहा कि उनके मन की ‘नास्तिकता रूपी रेगिस्तान’ की दीवार ढह गई है। वे 1891 में भारत वापस आ गये।

दक्षिण अफ्रीकाः

 गांधी जी के बम्बई पहुंचने के पूर्व ही उनकी माताजी का देहान्त हो गया। पिता जी का देहान्त छह वर्ष पहले हो ही गया था। भारतीय कानून का अध्ययन नहीं करने के कारण उन्हें अदालत में प्रैक्टिस करते समय परेशानी महसूस होने लगी। उसी बीच पोरबन्दर के एक व्यापारी ने उनके बड़े भाई को पत्र लिख कर प्रस्ताव दिया कि दक्षिण अफ्रीका में उनके व्यापार से संबंधित एक दीवानी मुकदमे में गांधी जी को व्यस्त कर दिया जाये। उस समय वे 24 वर्ष के भी नहीं थे। आरंभ में वह एक वर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका गये लेकिन बीच-बीच में कुछ समय को छोड़कर उन्होंने 21 वर्ष (1893-1914) तक वहां निवास किया।Mahatma Gandhi

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 22 मई, 1894 को गांधी जी को सचिव पद पर मनोनीत किया। 1896 के मध्य में वे भारत आए तथा 6 महीने रुकने के बाद अपनी पत्नी व 2 बच्चों के साथ पुनः दक्षिण अफ्रीका वापस चले गये। बोर युद्ध में, यद्यपि गांधी की सच्ची सहानुभूति बोरों के साथ थी पर ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन नागरिक होने के कारण उन्होंने अंग्रेजों के पक्ष में रहने का निर्णय लिया।

गांधी जी 1901 में भारत वापस आ गये। वापस आने के कुछ दिन बाद उन्होंने कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। दक्षिण अफ्रीका संबंधी गांधी द्वारा प्रस्तुत संकल्प बिना किसी पूर्व सूचना के कम समय में ही सर्वसम्मति से पारित हो गया और यह जंगल की आग की तरह फैल गया, जिसे सुनकर व पढ़कर गांधी को कष्ट हुआ। शीघ्र ही वे एक भ्रमण के लिए निकल पड़े और रंगून, बनारस, आगरा, जयपुर व पालनपुट आदि की ट्रेन से तृतीय श्रेणी में यात्रा करते हुए राजकोट पहुंचे। 1902 के अन्त में वे पुनः दक्षिण अफ्रीका गए।

भारत छोड़ने से पहले गांधी ने सोचा था कि वे कुछ ही महीने वहां रहेंगे पर वे पूरे 12 वर्ष तक दक्षिण अफ्रीका में रहे। सर्वप्रथम गांधी जी ने वहां पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रचलित वंशवाद के अत्याचारों के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन के माध्यम से लड़ने का प्रयास किया। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए उन्होंने ‘फीनिक्स फार्म’ में रहने वाले समुदायों के विचारों पर एक प्रयोग किया।

बाद में 1910 में उन्होंने एक ‘टॉलस्टॉय फार्म’ की स्थापना की। वहां के निवासी शाकाहारी थे और इस प्रयोग को उन्होंने अपने प्रतिदिन के कार्यकलापों में स्थान दिया। यद्यपि कोई भी संघर्ष अपने उद्देश्य प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाया तथापि गांधी जी ने निश्चित रूप से बहुमूल्य अनुभव प्राप्त किये।Mahatma GandhiMahatma Gandhi

भारत में वापसी

9 जनवरी, 1915 को गांधी जी और कस्तूरबा गांधी बम्बई पहुंचे। उनके स्वागत में फिरोजशाह मेहता की अध्यक्षता में एक नागरिक अभिनन्दन की तैयारी की गई, जिसमें हर समुदाय के लोगों ने भाग लिया। 1915 में ‘फीनिक्स’ व ‘टॉलस्टॉय’ फार्मों के अनुरूप उन्होंने अहमदाबाद के पास ‘कोचर्ब’ में किराए के मकान में ‘सत्याग्रह आश्रम’ की स्थापना की, जिसे शीघ्र ही उन्होंने वहां से हटाकर साबरमती नदी के किनारे स्वयं की जमीन पर स्थापित किया। वह 16 वर्षों तक वहां रहे। स्वतन्त्रता आंदोलन के अधिकांश सक्रिय नेताओं ने अपने राजनीतिक जीवन की शिक्षा इसी आश्रम से ग्रहण की। भारत आने पर वे गोपाल कृष्ण गोखले के संपर्क में आए। जिनके विचार व चिन्तन बिल्कुल उनके चिन्तन के अनुरूप थे।

लोगों के वास्तविक जीवन के बारे में जानने के लिए उन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण किया। राजनैतिक कार्यकर्ताओं से लेकर निम्न से निम्न वर्ग के लागों से मिलने के बाद जब गांधी जी ने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया तब सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए उन्होंने स्वयं को व्यस्त रखा और उनका समाधान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की तरफ से नहीं बल्कि अपने तरीके से करने का प्रयास किया।

प्रथम सत्याग्रहः

1916 में लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान बिहार के एक किसान राजकुमार शुक्ला ने उत्तरी बिहार के चम्पारण जिले में भ्रमण हेतु निवेदन किया, जहां बटाई पर नील की खेती करने वाले किसानों पर खेतों के अंग्रेज मालिक बहुत बेदर्दी से अत्याचार कर रहे थे। चम्पारण के सत्याग्रह ने 28 लाख किसानों को प्रभावित किया। धीरे-धीरे संघर्ष ‘तिनसुखिया’ के चारों ओर केन्द्रीभूत हो गया क्योंकि वे एक शताब्दी से अंग्रेजों के अत्याचार को झेल रहे थे।

अंग्रेज मालिकों ने ऐसा नियम बना रखा था कि जिसके अनुसार नील की खेती का सिर्फ एक-तिहाई हिस्सा काश्तकारों को मिल पाता था और शेष फसलों की खेती का हिस्सा जबरदस्ती वे वसूल कर लेते थे। इस प्रकार किसानों को कुछ भी फायदा नहीं रहता था।

गांधी जी ने घोषणा की कि वे खेत मालिकों को शत्रु के रूप में नहीं देख रहे हैं। यह घोषणा बहुत महत्वपूर्ण थी। उन्होंने सरकार को किसानों के कष्ट निवारण के लिए एक आयोग स्थापित करने के लिए बाध्य कर दिया। गांधी जी भी उस आयोग के सदस्य थे। यद्यपि स्पष्ट रूप से खेत मालिकों के किसानों के प्रति क्रूरता व उदण्डता के व्यवहार के अनेक प्रमाण व गवाह थे।

गांधी जी ने घोषणा की कि अतीत में जो बीत गया सो बीत गया उससे कोई मतलब नहीं पर वर्तमान समय में वे अपनी क्रूरता व अत्याचारों को संतोषजनक ढंग से बंद कर दें। इस प्रकार वे खेत के मालिकों पर विजय प्राप्त कर सके। उन्होंने ज्यादा क्षति पूर्ति के लिए भी हठ नहीं किया, उन्होंने कहा कि किसानों को कुल मूल्य का कम से कम 25 प्रतिशत वापिस कर दिया जाए और खेत मालिक यह गारंटी दें कि किसानों से अब जबरदस्ती वसूली नहीं की जाएगी। दोनों तरफ से एक संतोषजनक समझौता हुआ और सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि किसानों को खेत मालिकों की क्रूरता व निष्ठुर शासन से राहत की सांस मिली।

Mahatma Gandhi ने शीघ्र ही अहमदाबाद के मिल श्रमिकों का भी प्रश्न उठाया जिनकी मजदूरी बहुत कम थी। मजदूरों को उचित मजदूरी दिलाने के संघर्ष में अनुसूइया बाई ने अपने करोड़पति भाई के खिलाफ गांधी का साथ दिया। गांधी जी ने एक हड़ताल का संचालन किया और मजदूरों में एकता हेतु अनशन किया। अन्त में, मिल-मालिकों को झुकना पड़ा व इस तरह निर्णय मजदूरों के पक्ष में हुआ।

उसके बाद गांधी जी खेड़ा गये। यहां के गरीब किसान पहले ही ज्यादा करों के बोझ से दबे हुए थे और दूसरी ओर फसल बर्बाद हो जाने से अकाल से लड़ रहे थे। सरकार को मजबूरन यह घोषणा करनी पड़ी की जमीन की मालगुजारी सिर्फ वही किसान देंगे जो कि लगान देने में सक्षम होंगे। एक बार फिर सत्याग्रह आन्दोलन ने किसानों को सत्ताधारियों की क्रूरता व भय से छुटकारा दिलाने में मदद की।

असहयोग आंदोलनः

प्रथम विश्व युद्ध में भारत के लोगों और गांधी ने ब्रिटेन का साथ इसलिए दिया कि युद्ध की समाप्ति के बाद भारत की स्वय की सरकार बनाने में ब्रिटेन स्वीकृति दे देगा। लेकिन वास्तव में क्या घटित हुआ, भारतीयों की स्व-शासन की आशाओं के विपरीत ब्रिटिश सरकार 1919 में ‘रॉलेट एक्ट’ पारित करवा दिया । जिसके नियम बहुत ही सख्त कठोर व हर कदम पर रुकावट डालने वाले थे।

इस अधिनियम से लोगों में अत्यंत तनाव एवं रोष व्याप्त हो गया और इसका सबसे दर्दनाक काण्ड 11 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में हुआ नरसंहार था जिसमें जनरल डायर ने निहत्थी भीड़ पर गालियां चलाने के आदेश दिए। इस घटना में 1500 से अधिक निर्दोष भारतीय मारे गये।

इस दर्दनाक घटना की जांच के लिए गठित ‘हण्टर आयोग’ द्वारा भारत के लोगों के पक्ष में रिपोर्ट देने के बावजूद उनके दुःखों पर मलहम लगाने का काम नहीं किया। यहां तक कि अंग्रेजों ने इस भयानक घटना के पश्चात पश्चाताप का एक शब्द भी नहीं बोला। उसी समय गांधी ने इस अधिनियम की खिलाफत करने के लिए निर्देश‍ जारी कर दिए। गांधी जी ने सोचा कि यही अवसर है जब कि हिन्दुओं औ मुसलमानों में एकता का सामंजस्य लाकर ‘अहसयोग आंदोलन’ के माध्यम से अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया जाए।

अप्रैल 1920 में गांधी जी ने बम्बई में यह घोषणा की कि यदि ‘रॉले अधिनियम’ वापस नहीं लिया गया तो शासकों के साथ रहना असम्भव होगा पहली बार उन्होंने अंग्रेजों की आलोचना की यद्यपि यह केवल एक चेतावनी थी तथापि ब्रिटेन से हर तरह का सम्बन्ध तोड़ने का विचार किया गया।

कुछ सप्ताह बाद 1 अगस्त, 1920 को वायसराय को लिखे एक पत्र में उन्होंने कह कि, “मैं ब्रिटिश सरकार की न तो इज्जत कर सकता है और न ही उससे लगाव रख सकता हूं क्योंकि वे अपने किये अन्यायपूर्ण कार्यों से बचने व लिए गलतियों पर गलतियां किये जा रहे हैं।” इस पत्र के साथ ही उन्होंने असहयोग आंदोलन के माध्यम से सरकार का घेराव करना शुरू कर दिया बहुत दिनों तक प्रतीक्षा करने के बाद भी सरकार की तरफ से न तो को सकारात्मक संकेत आया और न ही सरकार ने झुकने का नाम लिया। उसी दिन राष्ट्रीय आंदोलन के प्रतिष्ठित नेता बाल गंगाधर तिलक का देहान्त हो गया।

वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने अगस्त 1920 में असहयोग आंदोलन पर टीका-टिप्पणी करते हुए दोषारोपण किया कि, “यह आन्दोलन सबसे मूर्ख लोगों की मूर्ख योजना है।” गांधी जी ने इसे हानिरहित असाधारण आन्दोलन के रूप में देखा पर आन्दोलन की बढ़ती गति को सरकार अपने हिंसात्मक तरीकों से रोक नहीं पायी।

Mahatma Gandhi जी का असहयोग आन्दोलन का विचार साधारण लगते हुए भी तत्कालीन समय में एक बहुत ही शक्तिशाली पुकार थी। दिसम्बर 1920 के नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में गांधी जी ने वादा किया कि यदि पूरा भारत असहयोग व अहिंसात्मक आन्दोलन के अनुरूप चल पड़ा तो 12 महीने के अन्दर भारत की अपनी सरकार होगी। गांधी जी ने इस संदेश को पूरे राष्ट्र को प्रेषित किया।

उन्होंने असहयोग आंदोलन को इस रूप में चलाया कि जबतक सभी लोग इसे अपने व्यक्तिगत जीवन में उतार कर नहीं चलेंगे तब तक ‘स्वराज’ प्राप्त नहीं हो सकता। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए मानवता की सेवा हेतु मिले अपने दो पुरस्कार ‘दक्षिण अफ्रीका का युद्ध पदक ‘व ‘केसर-ए-हिन्द’ स्वर्ण पदक वायसराय को वापस लौटा दिए।

जनवरी 1922 में ‘बारदोली सत्याग्रह’ व एक ‘रचनात्मक योजना’ को स्थापित किया गया। लॉर्ड रीडिंग को एक सप्ताह का नोटिस दिया गया कि यदि इस बीच सरकार की ‘प्रतिरोध नीति’ में परिवर्तन नहीं किया गया तो हम वृहद स्तर पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर देंगे। 1 फरवरी, 1922 को गांधी ने बारदोली में सविनय अवज्ञा आंदोलन आरम्भ कर दिया। Mahatma Gandhi

5 फरवरी, 1922 को प्रदर्शनकारियों का एक समूह प्रदर्शन करते हुए उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे चौरी-चौरा में एक पुलिस स्टेशन के सामने से गुजरा। इस प्रदर्शन में पीछे रह गये कुछ लोगों के साथ पुलिस ने गाली-गलौच की व दुव्यर्वहार किया तो उन्होंने स्वयं अपना बचाव किया। उसके बाद पुलिस ने फायरिंग करनी शुरू कर दी, तब प्रदर्शनकारियों की भीड़ उनका विरोध करने हेतु वापस आ गई। गोलियां समाप्त हो जाने के बाद पुलिस ने स्वयं को थाने के अन्दर बन्द कर लिया जिससे क्रोधित प्रदर्शनकारियों ने पुलिस स्टेशन में आग लगा दी। इस घटना 22 पुलिसकर्मी जल कर मर गये। पूरा आंदोलन हिंसा पर उतर आया।

हिंसा रोकने के लिए गांधी जी ने आन्दोलन वापस ले लिया जिससे आन्दोलनकारियों और कांग्रेसी नेताओं में निराशा छा गई। लेकिन गांधी जी ने विचार किया कि जन-समुदाय को तैयार किए बिना असहयोग आंदोलन चलाना एक बहुत बड़ी भूल होगी।

कांग्रेस की कार्यकारी समिति की बैठक गुजरात के बारदोली में 12 फरवरी को हुई, जिसमें गांधी जी की आज्ञा से असहयोग आंदोलन बन्द करने के लिए एक प्रस्ताव पारित हुआ। गांधी जी ने कांग्रेसियों को अपना समय रचनात्मक कार्यक्रमों को पूरा करने में लगाने के लिए प्रेरित किया।

10 मार्च, 1922 को उन्हें गिरफ्तार कर लिए गया। सरकार ने उन पर राजद्रोह का अभियोग लगाया। गांधी जी ने घोषणा की कि बुराई के साथ ‘असहयोग’ करना उतना ही उचित है जितना कि अच्छाई के साथ ‘सहयोग’ करना। गांधी जी को 6 वर्ष के कारावास की सजा दी गई। सितम्बर 1924 में गांधी जी ने जातीय दंगों के विरोध में दिल्ली में मौलाना मुहम्मद अली के घर में 21 दिन का उपवास रखा।

रचनात्मक कार्यक्रम

गांधी जी ने रचनात्मक कार्यक्रम करने का एक दृढ़ निश्चय किया और उसके अनुसार व्यवस्था की, जैसे-चर्खे पर सूत कातना व खादी के कपड़े बुनना, शराब नहीं पीना, छुआछूत की भावना को जड़ समाप्त करना और हिन्दुओं व मुसलमानों को एकता के सूत्र से में बांधना आदि । अपने इन विचारों को प्रचारित करने के लिए गांधी जी ने समस्त भारत का भ्रमण किया। उस समय गांधी जी के लिए सामाजिक व आर्थिक कार्यक्रम बहुत ही महत्वपूर्ण थे।

Mahatma Gandhi जी ने महसूस किया कि समुदायों को राजनीतिक स्तर पर स्वतन्त्रता की बहुत ही आवश्यकता थी। 1928 में ‘साइमन आयोग’ का बहिष्कार किया गया। बारदोली में गांधी जी के सहयोग से सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में कर नहीं देने के सम्बन्ध में एक घेराव किया गया।

1929 में कांग्रेस ने एक संकल्प पारित कर यह घोषणा की कि यदि वर्ष के अंत तक स्व-शासन नहीं दिया गया तो वे पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग करेंगे। गांधी जी एक बार फिर राजनीतिक पटल पर छा गए परन्तु उन्होंने कांग्रेस का अध्यक्ष पद स्वीकार नहीं किया। जवाहर लाल नेहरू अध्यक्ष बनाए गए। लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग की घोषणा कर दी गयी। 

सिद्धांत के लिए उपवास

17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैक्डोनॉल्ड ने अनुसूचित जातियों के लिए अलग से निर्वाचन व्यवस्था करने हेतु जातीय पुरस्कार अधिसूचना प्रकाशित की। इस अधिसूचना के विरोध में गांधी जी 20 सितम्बर तक आमरण अनशन पर बैठे। किसी तरह अनेक नेताओं के एकमत प्रयासों के परिणामस्वरूप अनशन के पांचवें दिन ही यरवदा (या पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर हो गए।

दलित जातियों के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था के स्थान पर सीटें आरक्षित कर दी गई। गांधी जी ने 26 सितम्बर को अपना अनशन समाप्त कर दिया। 8 मई, 1933 को गांधी जी ने पुनः 21 दिन का उपवास करने की घोषणा की, पर इस बार यह उपवास सरकार के विरोध में नहीं अपितु आत्मशुद्धि के लिए था ताकि वे शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होकर अपने अनुयायियों के साथ अनुसूचित जातियों की ठीक से सेवा कर सकें। उपवास आरम्भ करने के कुछ दिन बाद ही सरकार ने उन्हें जेल से रिहा कर दिया।

राजनीति से दूर

मई 1934 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन अधिकारिक रूप से वापस ले लिए जाने के साथ ही गांधी जी ने पुनः अपने को सक्रिय राजनीति से दूर कर लिया। 1933 में एक साप्ताहिक पत्रिका हरिजन का प्रकाशन आरम्भ कर दिया, जो कि नियमित प्रयत्नों के कारण पत्रिका यंग इंडिया की तरह सामाजिक बुराइयों व कुरीतियों के खिलाफ प्रसिद्धि पा चुकी थी।

Mahatma Gandhi ने 1934 से लेकर 1940 तक स्वयं को पूर्ण रूप से गांवों के विकास कार्यों में लगा दिया। उनके रचनात्मक कार्यक्रम को कोई भी नाम दे दिया जाए पर उनका मुख्य लक्ष्य था, “स्वराज प्राप्ति के लिए एक स्वस्थ एवं मजबूत राष्ट्र का निर्माण करना।” 1984 में उन्होंने साबरमती आश्रम को एक हरिजन समूह को दे दिया और अपना मुख्यालय ‘वर्धा’ में स्थापित किया। बाद में 1936 में वे निकटवर्ती गांव ‘सेगांव’ में गए जो कि उन्हें जमनालाल बजाज ने उपहार स्वरूप दिया था।

करो या मरो का नारा

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अधीन होने वाले चुनावों में कांग्रेस ने ‘अनिच्छापूर्वक’ भाग लेने की स्वीकृति प्रदान कर दी। इसके लिए कांग्रेस मंत्रिमंडल का भी गठन किया गया किंतु बाद में इसने भारत के युद्ध में भाग लेने की घोषणा के प्रश्न पर त्याग पत्र दे दिया।

Mahatma Gandhi जी इस संकटकाल में सविनय अवज्ञा आंदोलन द्वारा अंग्रेजों के लिए किसी प्रकार का खतरा उत्पन्न करना नहीं चाहते थे किंतु स्व-शासन के मुद्दे पर सरकार की अरुचि से उन्हें काफी निराशा हुई। इसके विरोधस्वरूप लघु स्तर पर सत्याग्रह की शुरूआत हो गई। युद्ध में ब्रिटेन की स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने क्रिप्स मिशन को इस प्रस्ताव के साथ भेजा कि युद्ध के पश्चात् सभी मांगें कार्यान्वित कर दी जाएंगीं। इस मिशन से सभी असंतुष्ट थे । जापान की तरफ से खतरा मंडरा रहा था और गांधी जी का विचार था कि भारत को उसकी नियति पर छोड़ देना चाहिए। अब चाहे भले ही विद्रोह हो पर अंग्रेजी सरकार को यहां से खदेड़ना ही होगा।

8 अगस्त, 1942 को बम्बई में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सम्मेलन में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का संकल्प और गांधी जी के नेतृत्व में वृहद स्तर पर सामूहिक अहिंसात्मक आन्दोलन चलाने का प्रस्ताव पारित किया गया। गांधी जी ने घोषणा की कि, “या तो हम भारत को स्वतंत्र कराएंगे या इसी प्रयास में मर जाएंगे, हमेशा की गुलामी देखने के लिए हम जिन्दा नहीं रहेंगे।” शीघ्र ही गांधी जी अन्य समस्त शीर्ष कांग्रेसी नेताओं के साथ गिरफ्तार कर लिये गए। विरोध व हिंसा की आग चारों तरफ भड़क उठी।

महात्मा गांधी जी की मृत्यु

महात्मा गांधी जी अपना अंतिम उपवास 14 जनवरी, 1948 को शुरू किया । गांधी जी ने घोषणा किया कि उनका यह आमरण अनशन भारत एवम पाकिस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों के अंतःकरण को निर्देशित करेगा। 18 जनवरी 1948 को बाबू राजेंद्र प्रसाद सहित हर समुदाय के 100 लोंगो ने मुसलमानों के विश्वास व जान और माल की रक्षा करने का वचन दिया।  20 जनवरी 1948 को बिड़ला  हाउस में प्रार्थना सभा कर रहे थे , उसी समय मदन लाल ने एक बम फेंक दिया। इससे केवल चार दिवारी को ही क्षति पहुंची । मदन लाल को गांधी जी की इक्षा पर माफ़ कर दिया गया ।

30 जनवरी 1948 को एक सभा के दौरान बिड़ला मंदिर के प्रांगण में नाथू राम गोडसे ने गांधी जी के ऊपर अपने पिस्तौल से तीन गोलियां चलाई । गांधी जी ‘ हे राम ’ शब्द का उच्चारण करते हुए वहीं पर गिर गए और अपना दम त्याग दिया। Mahatma Gandhi

जवाहरलाल नेहरू | Jawaharlal Nehru

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