Jyotiba Phule Ka Jiwan Parichay: ज्योतिराव गोविंदराव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890) भारत के महान समाज सुधारक, शिक्षाविद, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी थे. उन्हें आधुनिक भारत के सबसे महान समाज सुधारकों में से एक माना जाता है.
ज्योतिराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे, महाराष्ट्र में हुआ था. वे एक मराठा परिवार से थे. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पुणे में ही प्राप्त की. बाद में उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए बॉम्बे प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया.
ज्योतिराव फुले ने अपने जीवन में महिलाओं और दलितों के उत्थान के लिए अथक प्रयास किए. उन्होंने महिलाओं के लिए स्कूल और कॉलेज खोले. उन्होंने दलितों के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसर प्रदान किए. उन्होंने दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई.
ज्योतिराव फुले ने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का लेखन किया. इनमें से कुछ प्रमुख ग्रंथ हैं:
गुलामगिरी (1873)
सत्यशोधक (1873)
स्त्री शिक्षा (1874)
विधवा पुनर्विवाह (1882)
अछूत-जाति प्रथा (1888)
ज्योतिराव फुले का योगदान भारतीय समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. उन्होंने महिलाओं और दलितों के उत्थान के लिए अथक प्रयास किए. उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया. उन्होंने भारतीय समाज को एक समतावादी समाज बनाने का प्रयास किया.
ज्योतिराव फुले का जन्मदिन भारत में हर साल ज्योतिबा फुले जयंती के रूप में मनाया जाता है. यह दिन भारतीय समाज के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है. इस दिन भारतीय समाज महिलाओं और दलितों के उत्थान के लिए ज्योतिराव फुले के योगदान को याद करता है.
ज्योतिराव फुले एक महान समाज सुधारक थे. उन्होंने अपने जीवन में महिलाओं और दलितों के उत्थान के लिए अथक प्रयास किए. उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया. उन्होंने भारतीय समाज को एक समतावादी समाज बनाने का प्रयास किया. ज्योतिराव फुले का योगदान भारतीय समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। Jyotiba Phule Ka Jiwan Parichay
Jyotiba Phule Ka Jiwan Parichay
I. प्रस्तावना
आवश्यकता अव्यक्त खजाना: ज्योतिबा फुले का परिचय
ज्योतिबा फुले एक ऐसे महान व्यक्ति थे जिन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों में अपराध और अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उन्होंने दुर्भाग्यपूर्ण समाज की कठिनाइयों से सामाजिक उत्थान के लक्ष्य को प्राथमिकता दी। यह आर्टिकल ज्योतिबा फुले के जीवन और कार्य के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करने का उद्देश्य रखता है।
II. ज्योतिबा फुले: सामाजिक सुधारक के नायक का अनदेखा खजाना
शिक्षित और समाज-सेवी योद्धा
ज्योतिबा फुले ने शिक्षा के महत्व को समझा और इसे विभिन्न वर्गों के लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रयास किये। उन्होंने मुख्य रूप से महिला और अल्पसंख्यकों को शिक्षित करने के लिए विभिन्न संस्थाओं की स्थापना की। इसके अलावा, वे समाज सेवा में भी सक्रिय थे और स्वास्थ्य, स्वच्छता, और दूषित आहार के विषय में जागरूकता फैलाने के लिए कई पहल की।
हिंदी में इस्लाम शिक्षा: एक सोच
ज्योतिबा फुले ने हिंदी भाषा में इस्लामी शिक्षा दिलाने के लिए एक नई सोच बताई। उन्होंने लोगों को समझाया कि वे एक-दूसरे की समानता एवं स्वतंत्रता को समझें और आपसी भ्रातृत्व का आदान-प्रदान करें। इससे मुस्लिम समुदाय के लोगों के साथ भाईचारे की भावना की उत्पत्ति हुई और साथ का आदान किया गया।
जाति प्राथमिकता के खिलाफ अवाज
ज्योतिबा फुले ने स्वतंत्रता संग्राम समय में जाति प्राथमिकता के खिलाफ आवाज बुलंद किया। उन्होंने सामाजिक और धार्मिक तारिकों को खत्म करके सबको बराबर अवसर देने की मांग की। उन्होंने अविद्या, अंधविश्वास, और अज्ञान को दूर करने के लिए प्रयास किए और लोगों को जागरूक किया कि वे किसी भी जाति की अपेक्षा से नहीं होते हैं।Jyotiba Phule Ka Jiwan Parichay
सामाजिक सुधार आन्दोलन की स्थापना
ज्योतिबा फुले ने सामाजिक सुधार आन्दोलन की स्थापना की और उसे अपने महत्वपूर्ण संघर्षों के माध्यम से आगे बढ़ाया। उन्होंने विद्यालयों, अस्पतालों, और छात्रावासों के निर्माण के लिए प्रयास किए और इनकी सुविधाओं को सभी वर्गों तक पहुंचाने का कार्य किया। उन्होंने सामाजिक सुधार की दिशा में बहुत बड़ी प्रगति की और उनके संघर्षों ने आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मार्गदर्शन की भूमिका निभाई।
ज्योतिबा फुले के सोशल वर्क
ज्योतिबा फुले के सोशल वर्क में उन्होंने अपराधियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उनके अन्यायी क़दमों का विरोध किया। उन्होंने गरीबों, महिलाओं, और अछूतों को सहायता प्रदान करके समाज को मजबूत और समर्पित बनाया। ज्योतिबा फुले के द्वारा संस्थापित की गई महिला मनोरंजन समिति, समाज सेवा संघ, और उपास्य मंच आज भी समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं।
III. ज्योतिबा फुले: जन्म से समाज उठाने के योद्धा
जन्मजात दुष्प्रभावों की कड़ी जंजीर
ज्योतिबा फुले का जन्म एक निम्नता में हुआ था जहां जाति प्राथमिकता, अज्ञान, और शोषण की व्यापक प्रथा थी। उनके परिवार को अर्थिक और सामाजिक सुख की कमी थी और इसे महसूस करने के कारण उन्होंने सामान्य मान्यताओं के खिलाफ खड़ा होने का निर्णय लिया।
महिला शिक्षा में क्रांतिकारी
ज्योतिबा फुले को महिला शिक्षा के प्रति गहरी आस्था थी और उन्होंने इसे प्रमुखता दी। उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया और विद्यालयों में उनके लिए आरक्षण की मांग की। यह उनका सोशल वर्क एक राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त करने में मदद की और भारतीय समाज को महिलाओं की शिक्षा के प्रति जागरूक किया।
अछूत वर्ग के लिए उठे
अछूत वर्ग के लोग ज्योतिबा फुले के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा थे। उन्होंने इस वर्ग की समस्याओं के बारे में जागरूकता फैलाई और कठिनाईयों को दूर करने के लिए प्रयास किए। ज्योतिबा फुले ने अछूत वर्ग के लोगों के अधिकारों की रक्षा की और उन्हें समाज में समानता के लिए लड़ाई लड़ने की शक्ति दी।
समाज के अपहृत श्रेणी की समस्याओं का समाधान
ज्योतिबा फुले द्वारा समाज की उपेक्षित श्रेणी के लोगों की समस्याओं का समाधान भी किया गया। उन्होंने विधवाओं, वृद्धों, और अशक्त लोगों के लिए निःशुल्क अस्पताल और आश्रम स्थापित किए। इससे उन लोगों की सहायता हुई
IV. देशभक्त ज्योतिबा फुले: स्वतंत्रता के सच्चे सिपाही की कहानी
भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के साथ योगदान
ज्योतिबा फुले, एक महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी साहसिक और आदर्शवादी सोच ने देशभक्तों को प्रेरित किया और उन्होंने स्वतंत्रता के लिए लड़ाई में अहम भूमिका निभाई।
ज्योतिबा फुले और खान-अबदुल ग़्फ़ार खान: साथियों की जोड़ी
ज्योतिबा फुले और खान-अबदुल ग़्फ़ार खान दोनों ही महान स्वतंत्रता सेनानी थे और उनकी इस अनूठी जोड़ी ने स्वतंत्रता आंदोलन को नई ऊचाइयों तक ले जाया। दोनों ने मिलकर देश की स्वाधीनता के लिए प्रेम का संग्रह किया और अपने योगदानों से देश को गर्व महसूस कराया।
नंदी पत्रिका: स्वतंत्रता सेनानियों की दलीलख़ानी
नंदी पत्रिका एक महत्वपूर्ण स्वतंत्रता सेनानी पत्रिका थी, जिसने ज्योतिबा फुले की सोच, कार्य और योगदान को दलीलख़ानी की। इस पत्रिका के माध्यम से, ज्योतिबा फुले ने देशभक्तों को समय-समय पर स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में जागरूक किया और उन्हें एकजुट होने के लिए प्रेरित किया।
स्वतंत्रता आन्दोलन में आवाज उठाना
ज्योतिबा फुले ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी आवाज उठाई और लोगों को स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अशिक्षित लोगों को शिक्षित करने के लिए शिक्षा के महत्व को बताया और वे भी बदल सकते हैं। उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए आवाज उठाई और उनकी मेहनत ने देश के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया।
V. ज्योतिबा फुले: भारतीय समाज को जागृत करने वाला यशास्वी योद्धा
ज्योतिबा फुले और महात्मा गांधी: विचारों की एकता
ज्योतिबा फुले और महात्मा गांधी दोनों ही महान स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने भारतीय समाज को जागृत करने का यशास्वी काम किया। उनके विचारों में एकता थी और वे दोनों ने अपने योगदानों से समाज को संघर्ष से आजाद कराने का अद्वितीय प्रयास किया।
आदर्श मकान विश्वास: भारतीय समाज में बदलाव
ज्योतिबा फुले ने आदर्श मकान विश्वास के माध्यम से भारतीय समाज में बदलाव लाने का संकल्प लिया। उन्होंने बालविवाह, सामाजिक अन्याय और अन्य बुराइयों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, जिससे समाज में सशक्तिकरण का आदान-प्रदान हुआ।
अनुसूचित जाति के लोगों की सहायता के लिए उठे
ज्योतिबा फुले ने अनुसूचित जाति के लोगों की मदद के लिए अपनी सभी शक्तियों का इस्तेमाल किया। उन्होंने उन्हें शिक्षा, रोजगार और समान अवसरों की व्यवस्था के लिए लड़ाई लड़ी और उन्हें आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से सशक्त बनाने में मदद की।
स्त्री-सशक्तिकरण के पक्षधर ज्योतिबा फुले
ज्योतिबा फुले एक सशक्त महिला हक के लिए आवाज उठाने वाले पक्षधर थे। उन्होंने महिलाओं को शिक्षा और स्वतंत्रता का अधिकार दिया . Jyotiba Phule Ka Jiwan Parichay motivenews.netdigitallycamera.com
5 Lekhak ka Jiwan parichay: यहाँ पर पाँच लेखकों का जीवन परिचय बहुत अच्छी तरह से दिया गया है जिनमे प्रमुख रूप से हैं: रामधारी सिंह दिनकर ,जय शंकर प्रसाद ,भारतेन्दु हरिश्चंद्र,रामबृक्ष बेनीपुरी,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ।
5 Lekhak ka Jiwan parichay
पाँच लेखकों का जीवन परिचय नीचे दिया गया है ।
1.रामधारी सिंह दिनकर का जीवन परिचय
रामधारी सिंह दिनकर (23 सितंबर 1908 – 24 अप्रैल 1974) एक भारतीय कवि, लेखक, निबंधकार और राजनेता थे. वे आधुनिक हिंदी साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं. उन्हें “राष्ट्रकवि” के नाम से भी जाना जाता है।
दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था. उनके पिता रवि सिंह एक किसान थे और उनकी माता मनरूप देवी एक गृहिणी थीं. दिनकर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में प्राप्त की और बाद में उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की.
दिनकर ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता लिखकर की. उनकी पहली कविता संग्रह “उर्वशी” 1934 में प्रकाशित हुआ. इस संग्रह में उन्होंने प्रेम, प्रकृति और देशभक्ति के विषयों पर कविताएँ लिखीं. दिनकर की कविताओं में ओज, विद्रोह और आक्रोश का भाव है. वे राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे.
दिनकर ने हिंदी साहित्य में कई महत्वपूर्ण रचनाएँ की हैं. उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं:
उर्वशी (1934)
कुरुक्षेत्र (1946)
रघुकुल वंश (1950)
उर्वशी की राख (1960)
संकल्प (1965)
गीत और गीतिका (1936)
नया क्षितिज (1943)
स्वर्ण युग (1952)
जय-जय धरा (1963)
दिनकर को उनके साहित्यिक योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिनमें से प्रमुख हैं:
ज्ञानपीठ पुरस्कार (1959)
पद्म भूषण (1968)
साहित्य अकादमी पुरस्कार (1954)
दिनकर का निधन 24 अप्रैल 1974 को चेन्नई में हुआ. वे हिंदी साहित्य के एक महान कवि और स्वतंत्रता सेनानी थे. वे आज भी अपने साहित्य के माध्यम से लोगों को प्रेरित करते हैं.
2.जय शंकर प्रसाद का जीवन परिचय
जयशंकर प्रसाद (1889-1937) हिंदी के छायावादी युग के प्रसिद्ध कवि, नाटककार, उपन्यासकार और निबंधकार थे. वे हिंदी साहित्य के इतिहास में एक प्रमुख स्तंभ के रूप में जाने जाते हैं।
प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1889 को वाराणसी में हुआ था. उनके पिता देवी प्रसाद एक प्रसिद्ध उद्योगपति थे और उनकी माता मुन्नी देवी एक धार्मिक महिला थीं. प्रसाद का बचपन वाराणसी में बीता और उन्होंने यहीं से अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की. बाद में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की.
प्रसाद ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता के साथ की. उन्होंने अपनी पहली कविता पुस्तक “कानन कुसुम” 1913 में प्रकाशित की. इसके बाद उन्होंने कई अन्य कविता पुस्तकें प्रकाशित की, जिनमें “चित्राधर” (1918), “झरना” (1922), “आँसू” (1923), “लहर” (1924), “कामायनी” (1935) और “प्रेम पथिक” (1936) शामिल हैं.
प्रसाद ने नाटक लेखन में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने कई प्रसिद्ध नाटक लिखे, जिनमें “स्कंदगुप्त” (1927), “चंद्रगुप्त” (1933), “अजातशत्रु” (1934), “जनमेजय का नाग यज्ञ” (1935) और “ध्रुवस्वामिनी” (1936) शामिल हैं.
प्रसाद ने उपन्यास लेखन में भी हाथ आजमाया. उन्होंने एक उपन्यास “इरावती” (1936) लिखा, जो उनके जीवन का अंतिम उपन्यास था.
प्रसाद ने निबंध लेखन में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने कई प्रसिद्ध निबंध लिखे, जिनमें “काव्य और कला” (1922), “भारतीय संस्कृति” (1923), “हिन्दू धर्म” (1924) और “भारतीय समाज” (1925) शामिल हैं.
प्रसाद का निधन 15 नवंबर 1937 को वाराणसी में हुआ था. वे हिंदी साहित्य के इतिहास में एक अमर हस्ती के रूप में जाने जाते हैं।
3.भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय
भारतेन्दु हरिश्चंद्र (9 सितंबर 1850 – 6 सितंबर 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह माने जाते हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी और उसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया. वे एक कवि, नाटककार, उपन्यासकार, पत्रकार, संपादक और समाज सुधारक थे।
हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में हुआ था. उनके पिता का नाम गोविंद प्रसाद और माता का नाम पार्वती देवी था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्राप्त की. बाद में उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाई की, लेकिन पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए.
हरिश्चंद्र ने साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता से की. उन्होंने अपनी पहली कविता “भारतवर्ष” 1867 में लिखी थी. इसके बाद उन्होंने कई कविता संग्रह प्रकाशित किए, जिनमें “भारतेंदु गीतावली”, “भारतेंदु काव्य संग्रह” और “भारतेंदु नाटक संग्रह” शामिल हैं.
हरिश्चंद्र ने नाटक, उपन्यास, पत्रकारिता और समाज सुधार के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने कई नाटक लिखे, जिनमें “अंधेर नगरी”, “नीलदेवी” और “सती” शामिल हैं. उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे, जिनमें “चंद्रकान्ता”, “स्वर्ग सुंदरी” और “यशोधरा” शामिल हैं. वे एक पत्रकार और संपादक भी थे. उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, जिनमें “दैनिक कर्मवीर”, “दैनिक हितकारक” और “दैनिक समाचार” शामिल हैं. वे एक समाज सुधारक भी थे. उन्होंने कई सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई.
हरिश्चंद्र का निधन 6 सितंबर 1885 को वाराणसी शहर में हुआ था. वे हिंदी साहित्य के एक महान कवि, नाटककार, उपन्यासकार, पत्रकार, संपादक और समाज सुधारक थे. उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी और उसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया।5 Lekhak ka Jiwan parichay
4.रामबृक्ष बेनीपुरी का जीवन परिचय
रामबृक्ष बेनीपुरी (23 दिसंबर 1899 – 9 सितंबर 1968) हिंदी साहित्य के एक प्रमुख कवि, नाटककार, निबंधकार, कहानीकार और पत्रकार थे. वे हिंदी के सबसे प्रसिद्ध लेखकों में से एक हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य में कई नए प्रयोग किए और हिंदी को एक समृद्ध और आधुनिक भाषा के रूप में स्थापित किया।
बेनीपुरी का जन्म 23 दिसंबर 1899 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गांव में हुआ था. उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा बेनीपुर में ही प्राप्त की. बाद में वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने गए, लेकिन पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए.
बेनीपुरी ने साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता से की. उनकी पहली कविता “प्रतिभा” 1913 में प्रकाशित हुई थी. इसके बाद उन्होंने कई कविता संग्रह प्रकाशित किए, जिनमें “कानन कुसुम”, “झरना”, “आँसू”, “लहर”, “कामायनी” आदि शामिल हैं.
बेनीपुरी ने नाटक, कहानी, उपन्यास और निबंध भी लिखे. उनके नाटकों में “स्कंदगुप्त”, “चंद्रगुप्त”, “ध्रुवस्वामिनी”, “प्रायश्चित” आदि शामिल हैं. उनकी कहानियों का संग्रह “छाया”, “आकाशदीप” और “इंद्रजाल” है. उनके उपन्यास “कंकाल” और “इरावती” हैं. उनके निबंधों का संग्रह “काव्य और कला” है.
बेनीपुरी का साहित्य भारतीय संस्कृति और दर्शन से गहराई से प्रभावित है. उन्होंने अपने साहित्य में भारतीय संस्कृति और दर्शन के अमूल्य विचारों को प्रस्तुत किया है. बेनीपुरी का साहित्य अत्यंत समृद्ध और बहुआयामी है. उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊंचाई प्रदान की है.
बेनीपुरी का निधन 9 सितंबर 1968 को मुजफ्फरपुर में हुआ था. वे हिंदी साहित्य के एक महान कवि, नाटककार, निबंधकार, कहानीकार और पत्रकार थे. उन्होंने हिंदी साहित्य को एक अमूल्य धरोहर दी है.
बेनीपुरी की प्रमुख कृतियाँ हैं:
कविता संग्रह: “कानन कुसुम”, “झरना”, “आँसू”, “लहर”, “कामायनी” आदि
नाटक: “स्कंदगुप्त”, “चंद्रगुप्त”, “ध्रुवस्वामिनी”, “प्रायश्चित” आदि
कहानी संग्रह: “छाया”, “आकाशदीप” और “इंद्रजाल”
उपन्यास: “कंकाल” और “इरावती”
निबंध संग्रह: “काव्य और कला”
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5. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (1877-1959) हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार, विद्वान, पत्रकार और शिक्षाविद् थे. वे हिंदी साहित्य के छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों में से एक थे।
द्विवेदी का जन्म 1877 में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के त्रिभुवनपुर गांव में हुआ था. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत में स्नातक और परास्नातक की उपाधि प्राप्त की.
द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने हिंदी को एक समृद्ध और आधुनिक भाषा के रूप में स्थापित किया. उन्होंने हिंदी साहित्य में छायावादी काव्यधारा का प्रारंभ किया. उन्होंने हिंदी साहित्य में कई नए शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया. उन्होंने हिंदी साहित्य में कई नए विषयों को शामिल किया.
द्विवेदी ने हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने 1900 में “सरस्वती” पत्रिका की स्थापना की. “सरस्वती” पत्रिका हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण पत्रिका थी. इस पत्रिका ने हिंदी साहित्य के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया.
द्विवेदी ने हिंदी शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने 1905 में “काशी हिंदू विश्वविद्यालय” में हिंदी के प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए. उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के अध्ययन को बढ़ावा दिया. उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के कई पाठ्यक्रमों की शुरुआत की.
द्विवेदी को हिंदी साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने 1954 में पद्मभूषण से सम्मानित किया. वे हिंदी साहित्य के एक महान विद्वान, पत्रकार, शिक्षाविद् और साहित्यकार थे. उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊंचाई प्रदान की.
द्विवेदी की प्रमुख कृतियाँ हैं:
कविता संग्रह: “उर्वशी”, “कल्पना”, “मधुबाला”, “चिन्ता”, “प्रेम”, “अनामिका” आदि
उपन्यास: “सेवासदन”, “कालिका”, “चंद्रकांता”, “गोदान” आदि
नाटक: “महाराणा प्रताप”, “सत्य हरिश्चंद्र”, “महाभारत” आदि
निबंध संग्रह: “हिंदी साहित्य का इतिहास”, “छायावाद”, “अंग्रेजी साहित्य का इतिहास”, “भारतीय दर्शन” आदि
द्विवेदी का हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है. वे हिंदी साहित्य के एक महान विद्वान, पत्रकार, शिक्षाविद् और साहित्यकार थे. उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊंचाई प्रदान की। 5 Lekhak ka Jiwan parichay
Neha Singh Rathore | नेहा सिंह राठौर का जीवन परिचय , ये एक बहुत ही मध्यम वर्गीय परिवार से हैं। ये अपने गाए गए भोजपुरी गानों की वजह से हमेशा सुर्खियों में रहती हैं । नेहा सिंह हमेशा अपने गीतों के माध्यम से गरीबी , भ्रष्टाचार ,महंगाई और सरकार की नाकामियों पर ब्यङ्ग और सवाल करती रहती हैं । ये बिहार के कैमूर जिले की रहने वाली हैं । ये एक गाना “यू पी में का बा “ से काफी सुर्खियों में आ गयी थीं ।
नेहा सिंह राठौर ब्यंग भरे गीतों की वजह से हमेशा सुर्खियों में बनी रहती हैं। इनके यूट्यूब पर लाखों फॉलोअर्स हैं। और सपोर्ट भी करते हैं ।
Neha Singh Rathore Biography
पूरानाम
नेहा सिंह राठौर
पिता का नाम
रमेश सिंह
आयु
23 वर्ष
लिंग
महिला
वैवाहिक स्थिति
विवाहित
शिक्षा
बीएससी
पेशा
भोजपुरी सिंगर
पति
हिमांशु सिंह
पेशा
गायन
निवास स्थान
कैमूर (बिहार )
Neha Singh Rathore
नेहा सिंह राठौर का जीवन परिचय
नेहा सिंह राठौर एक भारतीय लोक गायिका हैं. वह बिहार के एक छोटे से गांव में पैदा हुईं और बचपन से ही गाना गाती थीं. उन्होंने 2013 में अपना पहला गाना रिकॉर्ड किया और तब से वह लगातार गा रही हैं. उन्होंने कई लोकप्रिय गाने गाए हैं, जिनमें “रोजगार देबा कि करबा ड्रामा”, “यूपी में का बा”, “इलियाहाबाद यूनिवर्सिटी”, “बेरोजगारी”, “महिला सशक्तिकरण”, “गरीबी”, “भ्रष्टाचार”, “नक्सलवाद”, और “जलवायु परिवर्तन” शामिल हैं.
नेहा के गीतों में सामाजिक मुद्दों को उठाया जाता है. वह अपने गीतों के माध्यम से महिला सशक्तिकरण, गरीबी, बेरोजगारी और अन्य सामाजिक समस्याओं के बारे में लोगों को जागरूक करती हैं. उनके गीतों को लोग काफी पसंद करते हैं और वे अपने गीतों के माध्यम से लोगों को एक नई दिशा देने का काम कर रही हैं.
नेहा सिंह राठौर एक प्रतिभाशाली गायिका और गीतकार हैं. वह एक सच्ची लोक गायिका हैं और अपने गीतों के माध्यम से लोगों की आवाज बनती हैं. वह एक प्रेरणादायक व्यक्ति हैं और वे अपने गीतों के माध्यम से लोगों को एक बेहतर जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हैं.
यहां नेहा सिंह राठौर के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण तथ्य दिए गए हैं:
जन्म: 14 फरवरी, 1997
जन्मस्थान: कैमूर, बिहार
शिक्षा: पटना विश्वविद्यालय
करियर: गायिका, गीतकार
प्रसिद्ध गाने: रोज़गार देबा कि करबा ड्रामा, यूपी में का बा, इलियाहाबाद यूनिवर्सिटी, बेरोजगारी, महिला सशक्तिकरण, गरीबी, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, जलवायु परिवर्तन
पुरस्कार: भोजपुरी गीतकार पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ लोक गायिका पुरस्कार, सामाजिक कार्यों के लिए सम्मान
नेहा सिंह राठौर एक प्रतिभाशाली गायिका और गीतकार हैं. वह एक सच्ची लोक गायिका हैं और अपने गीतों के माध्यम से लोगों की आवाज बनती हैं. वह एक प्रेरणादायक व्यक्ति हैं और वे अपने गीतों के माध्यम से लोगों को एक बेहतर जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हैं।
कैरियर का आरंभ
नेहा सिंह राठौड़ का पहला गाना, “धरोहर” 2013 में रिलीज़ हुआ था। यह गाना हिट रहा और इसने एक गायिका के रूप में उनके करियर को शुरू करने में मदद की। अगले वर्षों में, उन्होंने कई और गाने जारी किए, जिनमें “रोज़गार देबा की कराबा ड्रामा”, “यूपी में का बा”, और “इलियाहाबाद यूनिवर्सिटी” शामिल हैं। ये गाने भी सफल रहे और उन्होंने नेहा को भोजपुरी संगीत उद्योग में एक अग्रणी आवाज के रूप में स्थापित करने में मदद की।Neha Singh Rathore
सामाजिक सक्रियता
अपने सिंगिंग करियर के अलावा नेहा सिंह राठौड़ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। उन्होंने महिला सशक्तिकरण और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई संगठनों के साथ काम किया है। वह पर्यावरण संरक्षण की भी प्रबल समर्थक हैं।
नेहा के गानों में अक्सर सोशल मैसेज होता है. उदाहरण के लिए, उनका गीत “रोज़गार देबा की करबा ड्रामा” युवाओं को रोजगार प्रदान करने में विफलता के लिए सरकार की आलोचना करता है। उनका गाना “यूपी में का बा” उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार और गरीबी की समस्याओं पर प्रकाश डालता है। और उनका गीत “इलियाहाबाद विश्वविद्यालय” जवाबदेही की कमी के लिए विश्वविद्यालय प्रणाली की आलोचना करता है।
विवाद
नेहा सिंह राठौड़ के गाने अक्सर विवादित रहे हैं. उनके गाने “रोज़गार देबा की कराबा ड्रामा” पर बिहार सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। और उनके गाने ‘यूपी में का बा’ की उत्तर प्रदेश सरकार ने आलोचना की थी. हालांकि, नेहा कभी भी विवादों से दूर नहीं रहीं। उनका मानना है कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर बोलना महत्वपूर्ण है, भले ही इसका मतलब लोगों को असहज करना हो।
पुरस्कार और मान्यता
नेहा सिंह राठौड़ को उनके काम के लिए कई पुरस्कार मिले हैं, जिनमें भोजपुरी गीतकार पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ लोक गायिका पुरस्कार और सामाजिक सेवा पुरस्कार शामिल हैं। वह कई युवाओं के लिए एक आदर्श है, और वह उन सभी के लिए प्रेरणा है जो उसका गाना सुनते हैं।
**निष्कर्ष**
नेहा सिंह राठौड़ एक प्रतिभाशाली गायिका और गीतकार हैं जो दुनिया में बदलाव लाने के लिए अपनी आवाज का इस्तेमाल कर रही हैं। वह कई लोगों के लिए प्रेरणा हैं और उनका काम दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने में मदद कर रहा है।
नेहा सिंह राठौड़ के बारे में कुछ अतिरिक्त तथ्य
* वह पटना विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। * वह शादीशुदा है और उसका एक बच्चा है। * वह शाकाहारी हैं. * उसे पढ़ना, लिखना और यात्रा करना पसंद है। * वह कला और संस्कृति की प्रबल समर्थक हैं।
**नेहा सिंह राठौड़ बदलाव की सशक्त आवाज हैं। वह अपने संगीत का उपयोग महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और दूसरों को बदलाव लाने के लिए प्रेरित करने के लिए कर रही है। वह हम सभी के लिए एक प्रेरणा हैं, और हम केवल यही आशा कर सकते हैं कि उनका काम दुनिया पर सकारात्मक प्रभाव डालता रहेगा।**
Sonali Phogat Biography in Hindi , सोनाली फोगाट का जीवन परिचय सोनाली फोगाट, भारतीय महिला पहलवान की प्रतिष्ठितता और गर्व का प्रतीक हैं। वह एक बहुत ही प्रशंसित खिलाड़ी हैं जिन्होंने महिला पहलवानी को देश और विदेश में मशहूरी दिलाई है। सोनाली का जन्म 2 जून, 1992 को हरियाणा राज्य के जथलाना गांव में हुआ था। उनके पिता, महवीर फोगाट, खुद एक पहलवान हैं और उन्हीं के प्रेरणादायक समर्पण के कारण सोनाली ने पहलवानी को अपना शौक और इच्छा के रूप में चुना।
Sonali Phogat Biography in Hindi
Sonali Phogat Biography in Hindi
सोनाली की माता जी, श्यामा देवी, भी उनके पिता का समर्थन करती थीं और उन्होंने अपना पहलवानी के साथ-साथ विद्यालयी भी पूरी की। सोनाली का असाधारण रजत फुतला मंडल (स्वर्ण) राज्य स्तर पर स्कूलों में मुकाबला करने के लिए उन्हें प्राप्त हुआ। उन्होंने बाद में देशभर में विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया और हर जगह बेहतर प्रदर्शन किया।
सोनाली ने कितनी ही प्रकार की मेडल जीती हैं। उन्होंने 2010 में कराटे विश्वमेंडल में कांस्य पदक, 2017 कॉमनवेल्थ गेम्स में तेलंगाना में स्थित सचिन टेंडुलकर खेल कॉम्प्लेक्स में स्वर्ण पदक, 2018 कम से कम पांच बार प्रदेश चैंपियनशिप और नेशनल चैंपियणशिप में गोल्ड पदक जीता है। सोनाली ने अपना अविश्वसनीय दक्षता दिखाई है और हर किसी को अपनी भयंकर पहलवानी के लिए हराया है।
2016 में रियो ओलंपिक में सोनाली को विभाजन के जरिए एक कैंसल स्थान मिला, जिसके चलते वह दिल में खो जाने के लिए अपना जीवन के सपने बनाती हैं। लेकिन, वह निडरता, समर्पण, और गहरे मेहनत के बावजूद मानसिक और दर्दनाक संकटों के बीच चार महीनों तक अपनी खिलाड़ी की तारीखों को तूष्ण मौन देखना पड़ा। हालांकि, वह खुद को नहीं हराने के लिए तेजी से आगे बढ़ी और उसने नेशनल चैंपियनशिप में सोने का पदक जीत लिया; यह उनके पहले राष्ट्रीय खिलाड़ी होने का सम्मान है।
कप्तान विजय कुमार ने सोनाली को अपनी टीम में शामिल करने के लिए उन्हें बुलाया, जिसने उन्हें हॉस्टेल नेशनल स्पोर्ट्स एकेडमी में अच्छी तरह से शाखाएँ काटी और मैंटेन करने की सुविधा दी। वह अपने ट्रेनिंग सत्रों के दौरान अपने अद्वितीय खिलाड़ी बनने के लिए कठोर मुखे शिक्षा प्रदान करते रहते हैं। पहले, सोनाली के पास अपंगावस्था और लड़की होने के कारण उसे तब हमेशा हार से लड़ना पड़ता था; लेकिन, उसके परिवर्तित मनोभावन के बाद, वह एक खास कोच के लिए जो विश्व चैंपियन है, को चुनने और उसके नेतृत्व में ट्रेनिंग करवाने का निर्णय लिया।
सोनाली के पहलवानी की सभी महत्त्वाकांक्षित मुकाबलों के प्रमुख रोमांचकारी अंश के बावजूद, वह हिन्दी फिल्म दंगल की कहानी का माध्यम बनी जिसमें उन्हें रिया संधू के साथ रोल मिला। हमेशा सभी औरातों को प्रेरणा देते हुए, इसमें सोनाली का पहलवान बनने का कठिन सफर दिखाया गया था, जिसमें वह वजन में इजाफा करने के बावजूद अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ग्रीष्मकालीन पैमाने पर एकंद्रित होने की आवश्यकता थी। इस फिल्म ने उन्हें एक अभिनेत्री के रूप में महत्त्वाकांक्षी की उम्मीद को पूरा किया और इसने उन्हें ग्लॉमर और राष्ट्रीय मंच पर मंच पर उठाने का माध्यम बनाया।
सोनाली एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपने खुद का पहली बार संघर्ष अनुभव किया जब उन्होंने तेलंगाना में्हाना प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता। उनका सपना है कि वह भारत की उपोन्यास पहलवानी बनेगा और महिला पहलवानता के क्षेत्र में चर्चित होंगी। सोनाली एक परालींगी हैं और उन्होंने सोशल मीडिया, माध्यम बिंदु और राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पहलवानी के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। उन्होंने पूरी दुनिया को दिखाया है कि वैसे तो महिलाओं के लिए जुड़वां वहन और परिवारवादी जिंदगी की देन की अपेक्षा रचनात्मकता के रूप में जीने की कुछ और भी आवश्यकता है।
Lord Budha Biography -Siddhartha Gautama was born in Lumbini, Nepal, in the 6th century BCE. His father was Suddhodana, the king of the Shakya clan, and his mother was Maya Devi, a princess. Gautama was raised in great luxury, and he was expected to one day inherit his father’s throne.
However, Gautama was troubled by the suffering he saw in the world. He saw people who were sick, poor, and dying. He also saw people who were caught up in conflict and violence. Gautama began to question the meaning of life and whether there was a way to end suffering.Lord Budha Biography
Asceticism
When Gautama was 29 years old, he left his home and family to become an ascetic. He traveled to different parts of India, seeking a way to end suffering. He studied with different teachers and tried different methods of meditation. However, he was not satisfied with any of the answers he found.
Enlightenment
After six years of searching, Gautama sat down under a bodhi tree and vowed not to move until he had found the answer to the problem of suffering. After many hours of meditation, Gautama attained enlightenment. He became the Buddha, or “the awakened one.”
The Buddha realized that the cause of suffering is attachment to desire. He also realized that the way to end suffering is to follow the Noble Eightfold Path, which is a set of guidelines for living a moral and ethical life.Lord Budha Biography
The Noble Eightfold Path
The Noble Eightfold Path is a set of guidelines for living a moral and ethical life. It is divided into three sections: wisdom, ethics, and mental discipline.
The wisdom section of the Noble Eightfold Path includes right view, right intention, and right speech. Right view is the understanding that the cause of suffering is attachment to desire. Right intention is the intention to live a moral and ethical life. Right speech is speaking the truth, avoiding harmful speech, and using speech that is kind and beneficial.
The ethics section of the Noble Eightfold Path includes right action, right livelihood, and right effort. Right action is abstaining from killing, stealing, sexual misconduct, and lying. Right livelihood is earning a living in a way that does not harm others. Right effort is the effort to overcome negative thoughts and emotions, and to cultivate positive thoughts and emotions.
The mental discipline section of the Noble Eightfold Path includes right mindfulness and right concentration. Right mindfulness is the practice of paying attention to the present moment without judgment. Right concentration is the practice of focusing the mind on a single object, such as the breath or a mantra.Lord Budha Biography
The Spread of Buddhism
The Buddha’s teachings spread throughout India and eventually to other parts of the world. Buddhism is now one of the world’s major religions, with over 500 million followers.
The Buddha’s teachings have had a profound impact on the world. They have helped to reduce suffering and promote peace and understanding. The Buddha’s teachings are still relevant today, and they offer a path to a more meaningful and fulfilling life.
The Buddha’s Life
After attaining enlightenment, the Buddha traveled throughout India for the next 45 years, teaching his disciples the Noble Eightfold Path. He also founded the Sangha, the Buddhist monastic community.
The Buddha’s teachings were based on the principle of non-violence. He taught that all beings are interconnected, and that we should treat each other with compassion and respect. He also taught that the way to end suffering is to let go of our attachments and to live in the present moment.
The Buddha’s teachings were revolutionary for his time. They challenged the traditional Hindu view of the world, which taught that suffering was a punishment from the gods. The Buddha’s teachings offered a new way to understand suffering, and they offered a path to liberation from suffering.
The Buddha’s Death
The Buddha died at the age of 80 in Kushinagar, India. His death was a great loss to his followers, but they were comforted by his teachings. They knew that the Buddha’s teachings would continue to help people long after he was gone.
The Buddha’s Legacy
The Buddha’s legacy is immense. His teachings have helped millions of people to find peace and happiness. The Buddha’s teachings are still relevant today, and they offer a path to a more meaningful and fulfilling life.
The Buddha’s Influence
The Buddha’s influence has been felt throughout the world. His teachings have been translated into hundreds of languages, and they have been studied by scholars and practitioners from all walks of life.
जयप्रकाश नारायण | Jaiprakash Narayan, एक उत्कट व अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी तथा एक उत्साही समाज सुधारक जयप्रकाश नारायण को लोग ‘लोकनायक’ के रूप में याद करते हैं। उनका जन्म 11 अक्टूबर, 1902 को बिहार के सिताबदियारा गांव में, जो अब उत्तर प्रदेश में है, हुआ था। अपने विद्यार्थी जीवन में वह एक मेधावी छात्र थे। अपने गांव के स्कूल से प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होंने पटना से हाई स्कूल की परीक्षा पास की तथा ‘स्वर्ण पदक’ एवं छात्रवृत्ति प्राप्त की। 1921 में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण अस्थायी रूप से कुछ दिन के लिए अध्ययन कार्य को छोड़ दिया। 1922 में वे अमेरिका गये तथा ओहियो विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री प्राप्त की ।
1
पूरा नाम
जयप्रकाश नारायण | Jaiprakash Narayan
2
पिता का नाम
हरसू दयाल श्रीवास्तव
3
माता का नाम
फूल रानी देवी
4
पत्नी का नाम
प्रभावती देवी
5
जन्म तिथि
11 अक्टूबर 1902
6
जन्म स्थान
बिहार के सिताबदियारा गांव में, जो अब उत्तर प्रदेश में
7
मृत्यु
8, अक्टूबर 1979
8
जेल जाने की तिथि
7 मार्च 1940
9
शैक्षिक योग्यता
ओहियो विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री
10
पुरस्कार
रेमन मैग्सेसे, भारत रत्न
11
नागरिकता
भारतीय
12
पार्टी का नाम
भारतीय राष्ट्रिय काग्रेस, जनता पार्टी
जीवन परिचय ( About Jaiprakash Narayan )
जयप्रकाश नारायण आरम्भ में ‘मार्क्सवादी दर्शन’ से विशेष रूप से प्रभावित थे। भारत वापस आने के बाद वह मजदूरों की समस्याओं के निदान हेतु कार्य करते रहे और ‘साम्यवादी समूह’ में सम्मिलित हो गये। उन्होंने जमींदारी प्रथा समाप्त करने की वकालत की तथा बड़े-बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण पर बल दिया। उनके सामाजिक उत्साह की महत्ता को देखते हुए नेहरू ने उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिए आग्रह किया तथा श्रम विभाग का उत्तरदायित्व संभालने के लिए निमंत्रण दिया। जयप्रकाश नारायण ने उनके निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। उसके बाद वह सक्रिय रूप से स्वतंत्रता संग्राम के धर्मयुद्ध में कूद पड़े। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल की यात्रा करनी पड़ी। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने ‘अखिल भारतीय समाजवादी पार्टी’ की स्थापना की।
1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में पुनः सक्रिय रूप से भाग लेने पर जयप्रकाश नारायण को ब्रिटिश सरकार ने जेल में बंद कर दिया।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जयप्रकाश नारायण ने सक्रिय राजनीति में भाग लेना छोड़ दिया। फिर भी, सामाजिक सुधार के क्षेत्र में अपना संघर्ष जारी रखा तथा विनोबा भावे के ‘भूदान आंदोलन’ में सक्रिय योगदान देना शुरू कर दिया। 1974 में आपातकाल के दौरान उन्होंने एक बार पुनः भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में प्रवेश किया तथा देश में प्रचलित लोकतंत्र की पुनः बहाली के लिए एक नये तरह के आंदोलन का समर्थन किया। वे ‘जनता पार्टी’ की स्थापना के मुख्य सूत्रधार थे। उनके इस आंदोलन की लहर बिहार के विद्यार्थियों से शुरू होकर पूरे देश में जंगल के आग की तरह फैल गई। इसके परिणामस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इन्हें जेल में बंद करवा दिया तथा गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाने के कारण 12 नवम्बर, 1975 को इन्हें रिहा किया गया।
Jaiprakash Narayan की भूमिका लेखन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण रही है। वे सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक समस्याओं से संबंधित बहुत-सी पुस्तकों की रचना कर महान भारतीय लेखकों की पंक्ति में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में जोड़ गए हैं। 8 अक्टूबर, 1979 में इनका देहांत हो गया।
आधुनिक लोकतन्त्र
जयप्रकाश नारायण आधुनिक लोकतन्त्र के कटु आलोचक थे। उनके विचारानुसार वर्तमान राजनीति बिखरती जा रही है। दलों के आदर्शों में विस्तार की अपेक्षा उनके आदर्शों का अवमूल्यन, विधायकों का क्रय-विक्रय, स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण, दल की आंतरिक अनुशासनहीनता, व्यक्तिगत अथवा विशिष्ट हितों की रक्षार्थ दल-निष्ठा में परिवर्तन तथा सरकार की अस्थिरता आदि आधुनिक समय के प्रमुख विचारणीय प्रश्न हैं।
Jaiprakash Narayan ने लोकतन्त्र की प्रमुख समस्या मूल रूप से एक नैतिक समस्या बताई है। उनके विचारानुसार , लोकतन्त्र के अंतर्गत संविधान, शासन प्रणाली, दल एवं चुनाव इत्यादि महत्वपूर्ण तथ्य हैं, किन्तु इन तथ्यों के वांछित फल की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि जनता में आध्यात्मिक गुणों एवं नैतिक मूल्यों का समुचित विकास नहीं हो जाता। किसी भी देश में लोकतन्त्र केवल उसी स्थिति में सफल हो सकता है जबकि उसके नागरिक सत्य, अहिंसा, स्वतन्त्रता, सहयोग, अन्याय के अहिंसक प्रतिरोध तथा सह-अस्तित्व, कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व की भावना तथा सीधे एवं सरल जीवनयापन करने में अगाध विश्वास करते हों। उनका विचार था कि सार्वजनिक हितों के समक्ष व्यक्तिगत हितों को गौण समझे बिना, अपनी इच्छाओं, भावनाओं और आवश्यकताओं को क्रमशः नियंत्रित एवं सीमित किए बिना तथा राजनीतिक आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण लाए बिना सच्चे लोकतंत्र की स्थापना नहीं की जा सकती।
Jaiprakash Narayan आधुनिक संसदीय पद्धति के पक्षधर नहीं थे। उनके विचार में संसदात्मक पद्धति दलगत राजनीति के अनुसार कार्य करती है, जिसके अंतर्गत शक्तिशाली केन्द्र-नियंत्रित दलों द्वारा प्रचुर धन एवं कपटपूर्ण साधनों भ्रष्टाचार फैलाया जाता है। मतदाताओं की अपेक्षा दलों एवं प्रचार साधनों के पीछे निहित शक्तियों एवं हितों का प्रतिनिधित्व होता है तथा नौकरशाही दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होती जाती है और सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर जनता की निर्भरता बढ़ती जाती है। वर्तमान में प्रशासन का आचार व्यवहार ‘सेवक’ का न होकर ‘स्वामी’ का होता जा रहा है। पुनश्चः जयप्रकाश नारायण आधुनिक लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की भूमिका के कटु आलोचक थे। इस संदर्भ में उनका अभिमत था कि राजनीतिक दल जनता के नैतिक चरित्र का पतन तो करते ही हैं साथ ही स्वतन्त्र चिन्तन, विचार एवं अभिव्यक्ति का वातावरण भी जनता को प्राप्त नहीं हो पाता।
Jaiprakash Narayan आधुनिक लोकतंत्र के साथ-साथ आधुनिक निर्वाचन प्रणाली के भी विरोधी थे। उनका यह विश्वास था कि निर्वाचनों से जनता को किसी प्रकार की नियन्त्रणकारी सत्ता प्राप्त नहीं होती और न ही इनसे किसी प्रकार की वास्तविक शिक्षा ही प्राप्त होती है। उनके विचार में देश की गम्भीर राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं के शान्तिपूर्ण समाधान हेतु आम चुनाव पद्धति को समाप्त किया जाना अत्यावश्यक है। स्थानीय स्वशासन के केन्द्र एवं सत्ताओं तथा सरकार के विभिन्न अंगों में वैधानिक एवं चेतनात्मक संबंध जब तक स्थापित नहीं होंगे तब तक शक्ति का हस्तांतरण एवं प्रशासन का विकेन्द्रीकरण नहीं हो सकता। उनके विचारानुसार, राज्य का ढांचा जिन राजनीतिक इकाइयों पर आधारित होना चाहिए वे यथार्थ में ग्रामीण समाज हैं, न कि यत्र-तत्र बिखरे हुए मतदाता। भारतीय लोकतन्त्र की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्या मनुष्य को मनुष्य के सम्पर्क में लाने की है ताकि वे विवेकपूर्ण, परस्पर सार्थक तथा नियन्त्रणीय संबंध रखते हुए साथ-साथ रह सकें।इस प्रकार, स्पष्ट है कि जयप्रकाश नारायण आधुनिक लोकतन्त्र एवं आधुनिक दलगत राजनीति का विरोध करते हुए दल-निरपेक्ष लोकतन्त्र का समर्थन करते हैं ।
लोकतन्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यही है कि जनता अपने मामलों का जहां तक हो सके स्वयं प्रबंध करे। अतः मतदाताओं के कर्तव्य की मतदान के साथ ही इतिश्री नहीं हो जाती, अपितु मतदाताओं एवं निर्वाचित प्रतिनिधि के मध्य नियमित सम्पर्क रहना चाहिए ताकि वे एक-दूसरे के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन भली-भांति कर सकें।
जनतन्त्र समाज की स्थापना
जनतन्त्र समाज की स्थापना जयप्रकाश नारायण ने 13 अप्रैल, 1974 में एक निर्दलीय संगठन के रूप में की थी।
जनतन्त्र समाज के अंतर्गत निम्नलिखित मुद्दे सम्मिलित किए गए थेः
(1) लोकतन्त्र एवं स्वाधीनता के संदर्भ में जन-साधारण में चेतना जाग्रत करना तथा दल-बदल विधेयक के आपत्तिजनक मुद्दों का विरोध;
(2) वर्तमान निर्वाचन के विकल्प की खोज
;(3) चुनावों में निष्पक्षता एवं ईमानदारी;
(4) शांतिमय एवं विधि सम्मत तरीकों से आवश्यकतानुसार विरोध एवं प्रदर्शन;
(5) समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करना;
(6) लोगों में नागरिक स्वतन्त्रता के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना;
(7) प्रादेशिक भाषाओं के समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं की स्वतन्त्रता की रक्षार्थ यथासंभव प्रयास करना;
(8) सभी के लिए एकसमान नागरिक अधिकार संहिता हेतु प्रयास करना;
(9) सार्वजनिक जीवन से अस्पृश्यता एवं जातिवाद जैसी बुराइयों को दूर करना, तथा
(10) शांतिपूर्ण एवं लोकतंत्रात्मक उपायों से जनता के सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए यथासंभव प्रयास करना ।
यद्यपि जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में गठित यह जनतन्त्र समाज, वर्तमान में अस्तित्वमान नहीं है, तथापि, ‘दिशा-बोधक’ रूप में इसके महत्व को कम करके आंका जाना अथवा उसकी उपेक्षा किया जाना सर्वथा अनुचित होगा ।जयप्रकाश नारायण एवं समाजवादजयप्रकाश नारायण अपने राजनीतिक जीवन के आरंभिक चरण में मार्क्सवाद से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने भारतीय समाज का विश्लेषण मार्क्सवादी दृष्टिकोण से करना आरम्भ कर दिया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारतीय समाज में व्याप्त निर्धनता का मुख्य कारण केवल विदेशियों द्वारा किया गया आर्थिक शोषण ही नहीं है, अपितु, भारतीय जनता के शोषण में भारतीय पूंजीपति वर्ग का भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। वे वैज्ञानिक समाजवाद एवं इसकी विकासवादी प्रकृति में विश्वास रखते थे। उनके लिए समाजवाद से अभिप्राय उत्पादन एवं वितरण के समस्त साधनों पर सामूहिक स्वामित्व एवं सभी लोगों के लिए समान अवसरों की प्राप्ति से था ।जयप्रकाश नारायण इस तथ्य से परिचित थे कि राजनीतिक स्वतंत्रता कीप्राप्ति के बिना समाजवादी कार्यक्रमों को लागू नहीं किया जा सकता।
उन्होंनेदेश में कृषि विकास पर अत्यधिक बल दिया। उन्होंने सहकारी कृषि (coop-erative farming) का सुझाव दिया। देश में अर्थव्यवस्था के संतुलन हेतुवे राज्य के साथ-साथ सामुदायिक स्वामित्व वाले उद्योग लगाने के पक्ष में थे।उन्होंने भारत के विकास हेतु कृषि औद्योगिक अर्थव्यवस्था का सुझाव दिया।उन्होंने अर्थव्यवस्था के विकास की योजना में काफी योगदान दिया।बाद में, जयप्रकाश नारायण ने मार्क्सवाद का त्याग कर दिया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मार्क्सवादी समाजवाद जन-साधारण की समस्याओं को दूर करने में सक्षम नहीं है। उन्होंने यह अनुभव किया कि समाजवादी व्यवस्था में राज्य पूंजीवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया है। उन्होंने रूसी सर्वसत्तावाद की तीव्र आलोचना की। स्वाधीनता प्राप्ति के उपरांत वे सर्वोदय आंदोलन की ओर अभिमुख हुए।
जयप्रकाश नारायण इस तथ्य से सहमत थे कि मुख्य समस्या उत्पादन नहीं अपितु केन्द्रीयकरण है। अतः उन्होंने विकेन्द्रीकरण की वकालत की। उन्होंने राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त एक संगठिक राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था का सुझाव रखा। उन्होंने पिरामिडाकार राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की कल्पना की। वे समाजवाद को सामाजिक-आर्थिक पुननिर्माण के सम्पूर्ण सिद्धांत के रूप में समझते थे। उनके विचार में समाजवाद व्यापक योजनाओं के लिए एक सिद्धांत एवं तकनीक के रूप में था।
जयप्रकाश नारायण द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनके विचार में मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद असमानता के कारणों में किसी समाजवादी पूछताछ हेतु आधार उपलब्ध कराता है।
जयप्रकाश नारायण ने 1934 में अखिल भारतीय कांग्रेस समाजवादी दलहेतु निम्नलिखित 15 सूत्रीय कार्यक्रम
1. समस्त शक्तियां उत्पादक जन साधारण को सौंप दी जानी चाहिए।
2. देश का आर्थिक विकास नियोजित हो तथा जिस पर नियंत्रण राज्य का हो।
3. उत्पादन, वितरण तथा विनिमय के सम्पूर्ण साधनों को दृष्टिगत रखतेहुए प्रमुख एवं अतिमहत्वपूर्ण उद्योगों का समाजीकरण
4. विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार हो।
5. उत्पादन एवं वितरण हेतु सहकारी संगठन हों तथा आर्थिक जीवन के असामाजिक क्षेत्र में इसका समर्थन किया जाए।
6. राजाओं, जमींदारों एवं अन्य शोषणकर्ता वर्गों का बिना कोई क्षतिपूर्तिदिए निराकरण किया जाए।
7. किसानों का भूमि का पुनर्वितरण ।
8. राज्य द्वारा सहकारी एवं सामूहिक कृषि को प्रोत्साहन ।
9. कृषकों एवं श्रमिकों के ऋणों का पुननिर्धारण।
10. राज्य द्वारा कार्य के अधिकार को मान्यता देना अथवा उसे बनाएरखना।
11. प्रत्येक को उसकी आवश्यकता एवं उसकी वस्तुओं के अंतिम उत्पादन के आधार पर वितरण । क्षमतानुसार आर्थिक
12. प्रकार्यात्मक आधार पर सार्वभौमिक वयस्क अधिकार।
13. राज्य द्वारा किसी धर्म विशेष को न तो समर्थित किया जाएगा और न ही धर्मों के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव किया जाएगा।
14. राज्य द्वारा लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं बरता जाएगा।
15. तथाकथित भारत के सार्वजनिक ऋण से इंकार ।जयप्रकाश नारायण ने भू-राजस्व, उद्योगों के राष्ट्रीयकरण एवं उपभोग व्यय को कम करने के लिए अपनी आवाज उठाई।
1940 में उन्होंने बड़े पैमाने पर होने वाले सभी उत्पादनों पर सामूहिक स्वामित्व एवं नियंत्रण की वकालत की। उन्होंने राज्य द्वारा भारी यातायात, जहाजरानी, खनन एवं भारी उद्योगों (Heavy Industries) का राष्ट्रीयकरण किए जाने पर बल दिया।जयप्रकाश नारायण ग्रामों के पुनर्संगठन के पक्ष में भी खड़े हुए। उनके विचार में सहकारिता एवं योजनाओं का सही लाभ केवल उसी स्थिति में प्राप्त हो सकता है जबकि कृषि एवं उद्योगों के मध्य पर्याप्त संतुलन हो।
अगस्त 1946 में जयप्रकाश ने ग्राम राज की स्थापना हेतु निम्नलिखित 13 सूत्री रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत कियाः
1. कांग्रेस के सदस्यों का नामांकन किया जाए। प्रत्येक वयस्क ग्रामीण का नामांकन किया जाए। सभी नामांकित सदस्यों की बैठक होनी चाहिए।
2. एक सांस्कृतिक केन्द्र खोला जाना चाहिए जहां समाचार-पत्र पढ़े जा सकें तथा अन्य प्रकार की गतिविधियां, जैसे- वयस्क साक्षरता, नाट्य शास्त्रों, लोक गीतों, अध्ययन समूहों, पुस्तकालयों, कृषि परामर्श संबंधी चर्चा-परिचर्चा इत्यादि की जा सके।
3. सेवादल एवं अखाड़ा कार्य लागू किया जाए।
4. सफाई, सड़कों, बांधों इत्यादि से संबंधित समस्याओं का व्यावहारिक ढंग से मुकाबला।
5. अस्पृश्यता विरोधी कार्य ।
6. साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने हेतु कार्य।
7. मद्य-निषेध ।
8. परिस्थितियों का निरीक्षण ।
9. शिकायतें दूर करना।1
0. अनाज बैंक हेतु कोष प्रदान करना।
11. पड़ोसी गांवों में प्रचार करना ।
12. सहकारिता बाजार।
13. महिलाओं एवं बच्चों के साथ मिलकर कार्य करना ।
जयप्रकाश नारायण ने राज्य द्वारा अपने उद्योग खोले जाने के सुझाव के साथ ही उद्योगों पर नगरीय अथवा सामुदायिक स्वामित्व पर बल दिया। जयप्रकाश नारायण एवं शांतिजयप्रकाश नारायण ने सदैव विश्व शांति एवं अन्य राष्ट्रों के साथ अच्छे मित्रतापूर्ण संबंधों की वकालत की। उन्होंने साम्यवाद, साम्राज्यवाद, फासीवाद एवं अन्य विस्तारवादी नीतियों पर आधारित व्यवस्थाओं की कटु आलोचना की। उन्होंने स्व-निर्धारण, असंलग्नता एवं अहस्तक्षेप के सिद्धांतों को महत्व दिया।
उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के लिए युद्ध को एक साधन की भांति उपयोग करने की कड़ी निंदा की। उन्होंने सदैव बड़ी शक्तियों द्वारा छोटे देशों के मामलों में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति की निंदा की। उन्होंने शस्त्रीकरण की अन्धी दौड़ की भी आलोचना की। गांधी एवं उनके राष्ट्रवादी आदर्श के सच्चे अनुयायी होने के कारण जयप्रकाश नारायण ने कभी भी उग्र राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया तथा अंतरराष्ट्रीय ढांचे के भीतर उन्होंने विश्व शांति से संबंधित अपने विचार अभिव्यक्त किए।जयप्रकाश नारायण ने शांति, निःशस्त्रीकरण जैसे विवादों के सौहार्दपूर्ण समाधान तथा देशों के मध्य मित्रतापूर्ण सम्बन्धों की वकालत की।
1950 के दशक में उन्होंने विश्व में गुटनिरपेक्षता के विकास को प्रोत्साहित किया। 1960 के दशक में उन्होंने चतुर्थ विश्व की संकल्पना का विकास किया। उन्होंने छोटे देशों के लिए स्व-निर्धारण एवं सामान्य निःशस्त्रीकरण सम्बन्धी त्वरित एवं प्रभावी कदम उठाए जाने पर बल दिया।जयप्रकाश नारायण अंतरराष्ट्रीय निःशस्त्रीकरण जिसके अंतर्गत सभी आणविक, रासायनिक एवं जैविक हथियारों को समाप्त किया जाए, में विश्वास रखते थे; इसके साथ ही वे भारत के लिए एकपक्षीय निःशस्त्रीकरण में विश्वास रखते थे।
1950 में Jaiprakash Narayan ने कोरिया में अमेरिकी आक्रमण की यह कहते हुए निंदा की कि विश्व की दो महाशक्तियों, सोवियत रूस एवं अमेरिका, एक-दूसरे के विरुद्ध आमने-सामने खड़े हैं तथा कोरिया तो इनके खेल का एक प्यादा मात्र है। उनका अभिमत था कि प्रत्येक देश स्वतन्त्र है तथा किसी भी देश को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी अन्य देश पर आक्रमण करे अथवा उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करे। उन्होंने भारत एवं पाकिस्तान के लोगों के मध्य मित्रतापूर्ण संबंधों एवं भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित किया।
1965 में उन्होंने कश्मीर में पाकिस्तानी आक्रमण की निन्दा की।जयप्रकाश नारायण ने चीनी आक्रमण का सामना गुटनिरपेक्षता से करने हेतु वकालत की। उन्होंने भारत सरकार को यह सुझाव प्रेषित किया कि सैन्य वियोजन हेतु भारतीय सेना का एकपक्षीय निःशस्त्रीकरण किया जाए तथा हिंसक हथियारों के स्थान पर अहिंसा के शस्त्र को धारण किया जाए। चीनी आक्रमण के समय उन्होंने अहिंसात्मक पद्धति पर बल दिया।
जयप्रकाश नारायण के अनुसार भारत का किसी भी शक्ति गुट में शामिल होना शांति के सिद्धांत को खतरे में डालना होगा। भारत एवं चीन के मध्य सीमा विवाद निष्पक्ष जजों अथवा विवाचकों, जिन पर दोनों पक्ष पूर्ण विश्वास करते हों, को सौंप देने के पक्ष में थे। उन्होंने दिल्ली से पीकिंग (Delhi to Peking) तक एक शांति यात्रा का आयोजन किया।बांग्लादेश में होने वाले भीषण नरसंहार के विरोध में अंतरराष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से जयप्रकाश नारायण ने विश्व के प्रमुख पूंजीवादी देशों का दौरा किया। उन्होंने बांग्लादेश को तत्काल मान्यता प्रदान किए जाने की वकालत की। Jaiprakash Narayan
सर्व सेवा संघ एवं गांधी शांति संघ की ओर से उन्होंने 16 मई से 27 जून, 1971 तक काहिरा, रोम, मास्को, बेलग्रेड, स्टॉकहोम, पेरिस, बॉन, वाशिंगटन, लन्दन, न्यूयॉर्क, वैन्कुवर, ओट्टावा, टोकियो, कुआलालाम्पुर, जकार्ता एवं सिंगापुर की शांति यात्राएं की। उन्होंने महाशक्तियों पर नियंत्रण रख पाने में असफल संयुक्त राष्ट्र संघ की आलोचना की। उन्होंने मानवीय स्वतन्त्रता की रक्षा तथा राज्यों की स्वतन्त्रता एवं सुरक्षा के लिए विश्वसनीय मार्ग ढूंढने पर बल दिया। Jaiprakash Narayan
भूदान आंदोलन1950 के दशक के आरम्भ में जयप्रकाश नारायण दो विपरीत विषय-वस्तुओं से प्रभावित थे; प्रथम, वे समाजवादी दल से सम्बन्धित थे, जो कि उचित पृथक् नेतृत्व के अभाव में धीरे-धीरे कमजोर पड़ता जा रहा था; द्वितीय, विनोबा भावे के भूदान आंदोलन का आकर्षण चरणबद्ध रूप से वे अपने दल से होते गए तथा स्वयं को उन्होंने भूदान आंदोलन से संबंधित कर लिया। उनके विचार में भूदान आंदोलन भूमि के पुनर्वितरण की शांतिपूर्ण पद्धति ही नहीं थी अपितु दलविहीन लोकतंत्र की नींव था, जिसका निर्णय सर्व सम्मति से ग्राम पंचायत के मॉडल के रूप में लिया जा चुका था।
उन्होंने अहिंसा को सामाजिक परिवर्तन के लिए एक प्रभावी यंत्र बताया किंतु यह मार्क्सवादी और संसदीय लोकतन्त्र में दिखाई नहीं देता। Jaiprakash Narayan ने अति उत्साह के साथ भूदान, ग्रामदान एवं ग्राम स्वराज पर बोलना आरंभ कर दिया। इसे गहराई से देखने वालों के लिए यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण आंदोलन था। यह मानव एवं समाज में चौतरफा आमूल परिवर्तन हेतु आरम्भ किया गया था क्योंकि इसका उद्देश्य समाज के साथ-साथ मनुष्य के भीतर भी परिवर्तन लाना था।
यह आंदोलन गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित था। भूदान जीवन के विचारों एवं मूल्यों के नवीन स्वरूप के रूपांतरण एवं सृजन हेतु बड़े पैमाने पर होने वाला जन-आंदोलन था। यह असमानता एवं शोषण पर आधारित व्यवस्था पर एक आक्रमण था । इसने मनुष्य को इस बात की शिक्षा दी कि जो कुछ उसके पास है वह उसे अपने सहयोगियों के मध्य बांट दे। ग्रामदान की सुंदर परिकल्पना के अंतर्गत स्वामित्व की समाप्ति बल प्रयोग के माध्यम से नहीं, अपितु, समुदाय को स्वतन्त्र रूप से समर्पण द्वारा की जानी थी। मानव के अंतःकरण में परिवर्तन से ही समाज में बाह्य परिवर्तन दृष्टिगोचर होगा। यह गांधी जी के द्वि-क्रांति (double revolution) विचार का उदाहरण था। मुक्त सामूहिक पहल एवं प्रयास से सामाजिक तनाव, विवादों तथा अत्याचार के स्थान पर स्वतन्त्रता, पारस्परिक सद्भावना एवं समानता जैसे अभूतपूर्व निर्गतों की प्राप्ति संभव हो सकती है।जयप्रकाश नारायण गांधी जी के विचारों के कट्टर समर्थक थे ।
Rabindranath Tagore | रबीन्द्रनाथ टैगोर, कवि, दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री, देशभक्त, मानवतावादी, अन्तर्राष्ट्रीयतावादी तथा भारत की आत्मा के प्रवक्ता रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता के टैगोर निवास जोरासांको में हुआ। वह देवेन्द्रनाथ तथा सरला देवी को चौदहवीं सन्तान थे। उनके पिता ‘महर्षि’ के रूप में जाने जाते थे तथा एक धार्मिक आस्था वाले व्यक्ति होने के कारण ब्रह्म समाज संस्था से जुड़े हुए थे। टैगोर परिवार अपनी वैभवता तथा कला के प्रति प्रेम एवं उसके संरक्षण के लिए प्रसिद्ध था। साहित्य एवं सगीत के साथ उनका अनन्य प्रेम था । अनेक प्रतिभाशाली विद्वान, प्रसिद्ध संगीतकार, नर्तक / नर्तकियां, लेखक एवं कवि उनके घर जोरासांको आया करते थे। टैगोर परिवार के कलात्मक वातावरण का बालक रवीन्द्रनाथ के मन पर अत्यंत सकारात्मक प्रभाव पड़ा जिसके फलस्वरूप विश्व के इस भावी महान कवि का अभ्युदय हुआ ।
About Rabindranath Tagore
रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रारम्भिक शिक्षा स्कूल में हुई, किंतु कुछ समय पश्चात् घर पर ही शिक्षक नियुक्त करके उन्हें शिक्षा देने की व्यवस्था कर दी गई। उन्हें बांग्ला, अंग्रेजी, गणित, संस्कृत, भूगोल, इतिहास, शरीर विज्ञान एवं संगीत की शिक्षा भी दी गई। अपने काव्य संग्रह कवि-काहिनी के प्रकाशित होने के उपरांत वे अपने बड़े भाई सत्येन्द्रनाथ ठाकुर के साथ 1878 में इंग्लैण्ड गए। वहां उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया। About Rabindranath Tagore
इंग्लैण्ड प्रवास काल में उनकी कविताएं भारती में प्रकाशित होती रहीं। पाश्चात्य संगीत कला सीखने के लिए उन्होंने लन्दन के ही एक संगीत विद्यालय में प्रवेश लिया तथा साथ-ही-साथ में अपनी रुचि का विकास किया व जब-तब आर्ट गैलरी में भी भाग लेते रहे। 1880 में वह कोई शैक्षिक उपाधि प्राप्त किए बिना भारत वापस आ गये।
Rabindranath Tagore | रबीन्द्रनाथ टैगोर का विवाह भवतारिणी देवी, जिन्हें बाद में मृणालिनी कहा जाने लगा, के साथ 9 दिसम्बर, 1883 में हुआ। 1884 को वे आदि ब्रह्म समाज के मंत्री बनाए गए। 22 दिसम्बर, 1901 को उन्होंने पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित शांति निकेतन में एक प्रायोगिक विद्यालय की स्थापना की, जो कि 1921 में विश्व भारती विश्वविद्यालय बन गया।
1905 में उन्होंने बंगाल विभाजन का व्यापक विरोध किया। राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत उनके गीतों ने सम्पूर्ण बंगाल में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। उन्होंने घूम-घूमकर विशाल जन सभाओं में जोशीले भाषण दिए और अपने करिश्माई व्यक्तित्व एवं शब्दों से जनता को प्रभावित किया । किन्तु, जब राष्ट्रीय आंदोलन में हिंसक घटनाएं घटने लगीं तो वे राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति उदासीन होते गए और अंततः उससे संन्यास ले लिया, किंतु फिर भी वे अपने साहित्य के माध्यम से देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना का संचार करते रहे।
1912 में उनके द्वारा सृजित काव्य-संग्रह गीतांजलि का अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित हुआ, जिसकी ख्याति साहित्य समाज में सर्वत्र फैल गई। 1913 में उन्हें अपनी इस अनुपम कृति पर साहित्य का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। जून 1915 में उन्हें सर (knight) की उपाधि से सम्मानित किया गया। विभिन्न विश्वविद्यालयों ने उन्हें ‘डॉक्टर ऑफ लिटरेचर’ की सम्मानसूचक उपाधियों से अलंकृत किया, जबकि किसी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करना तो दूर वे कभी मैट्रिक की परीक्षा में भी नहीं बैठे थे।
1918 के रोलेट अधिनियम के विरोध में टैगोर ने अपनी ‘सर’ की उपाधि का परित्याग करते हुए गवर्नर जनरल को लिखे पत्र में कहा कि, सरकार द्वारा जो पाशविक दमन चक्र चलाया गया है उसका उदाहरण सभ्य शासन के इतिहास में कभी नहीं मिलता। कालचक्र अपनी गति से घूमता रहा। 14 अप्रैल, 1941 को उन्होंने अपनी 80वीं वर्षगांठ बनाई। धीरे-धीरे महाकवि का स्वास्थ्य खराब रहने लगा और 7 अगस्त, 1941 को यह दिव्यात्मा सदा के लिए परमात्मा में विलीन हो गई।
चिन्तन एवं विचार
देशभक्ति की संकल्पना
अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम के आधार पर Rabindranath Tagore | रबीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी देशभक्ति की संकल्पना को अभिव्यक्त किया है। इसे खुले रूप में समझाते हुए टैगोर कहते हैं कि, “भारत जब अन्याय से जूझ रहा है, तो हमारा अधिकार है कि हम इसके विरुद्ध लड़ें और बुराई के विरुद्ध लड़ने का हमारा उत्तरदायित्व होगा।” उनका केन्द्रीय विचार था कि वे जीवन एवं विश्व के यथार्थ परिप्रेक्ष्य को कभी नहीं छोड़ेंगे। दूसरे शब्दों में, वे भौगोलिक मूर्ति पूजा से प्रभावित नहीं थे, अपितु मानव मात्र के प्रेमपाश से बंधे हुए थे। आगे वे कहते हैं कि, “मैं भारत से प्रेम करता हूँ पर मेरा विचार है भारत एक भौगोलिक अभिव्यंजना मात्र नहीं है।” अपने सभी लेखों, कविताओं तथा भाषणों में उन्होंने घोषणा की कि, “उन्हें सिर्फ राष्ट्रीय आडम्बरों से घृणा है।” उनके अनुदारता तथा देशभक्ति के गुण उन्हें मानवता के उच्च काल्पनिक आदर्शों से सर्वथा पृथक रखते हैं।
आधुनिक युग की सर्वप्रथम आवश्यकता यह है कि मानव समुदाय को प्राप्त अवसरों का सदुपयोग इस रूप में करना चाहिए कि भिन्न-भिन्न लोगों को एक-दूसरे को जांचने एवं परखने की क्रियात्मक शक्ति का विकास हो सके। प्राप्त साधनों के बावजूद निर्मित दुर्भाग्य को न समझते हुए Rabindranath Tagore | रबीन्द्रनाथ टैगोर ने यह अनुभव किया कि पूर्व (East) को स्वयं की तथा विश्व की भलाई के लिए कुछ भी अस्पष्ट अथवा अव्यक्त नहीं छोड़ना चाहिए। टैगोर अपने देश से मानवीयता के संदर्भ में प्रेम करते थे। उन्होंने तर्क दिया कि देश प्रेम के कारण ही उन्होंने सार्वभौमिक स्वतन्त्रता की रूपरेखा तैयार की।
राष्ट्रीय घटनाओं की विशेषताओं ने टैगोर से उनके उत्तरदायित्व की मांग करनी आरम्भ कर दी ।Rabindranath Tagore | रबीन्द्रनाथ टैगोर
1905 में बंगाल विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न हुए राष्ट्रीय संकट के समय उन्होंने देशभक्ति की भावना से परिपूर्ण अनेक लेख लिखे व असंख्य भाषण दिए। उनके शब्द देश के लगभग समस्त देशभक्त नौजवानों, बच्चों, महिलाओं एवं वृद्धों के होंठों पर, देश के प्रत्येक कोने में गुंजायमान हो रहे थे। इसी प्रकार 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन ब्रिटिश जनरल डायर के आदेश पर जलियांवाला बाग में सभा हेतु एकत्र सैकड़ों स्त्री-पुरुषों पर गोलियों की बरसात कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। इस निर्लज्जतापूर्वक नरसंहार के उपरांत टैगोर ने स्व-रचित गीतों के माध्यम से देश में चेतना जाग्रत करने का कार्य आरम्भ कर दिया।
टैगोर भारत के रोष एवं क्रोध को मूर्त रूप देने के लिए ब्रिटिश सरकार के सामने आए थे। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त ‘सर’ (knighthood) की उपाधि सरकार को वापस करते वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को लिखा कि, “बहुत कुछ खोने के उपरांत अब हुए उन्होंने अन्त में मैं अपने देश के लिए जो कुछ कर सकता हूं, वह यह है कि सभी परिणाम अपने ऊपर लेते हुए अपने देशवासियों के बीच आप के विरुद्ध आवाज बुलन्द करते हुए लाखों लोगों को अपना स्वर प्रदान करूं। कितने आश्चर्य की बात है कि गूंगों व निहत्थों के ऊपर बर्बरतापूर्वक हमला किया गया।
इन परिस्थितियों में आपके द्वारा प्रतिष्ठासूचक बैज (बिल्ला) को अपने पास रखना बड़े शर्म की बात है, अपने देशवासियों का अपमान करना है और मेरी स्वयं की विशिष्टता में एक धब्बा है। अपने सभी देशवासियों के साथ ब्रिटिश सरकार द्वारा तुच्छतापूर्ण एवं असम्मानजनक व्यवहार करने के कारण मैं ‘सर की उपाधि’ लौटा रहा हूं……..।”
टैगोर विश्वास करते थे कि राष्ट्रवाद का सच्चा व बुद्धिमत्तापूर्ण अर्थ है- सभी भारतवासियों को, जो कि आपस में मिल-जुलकर पवित्रतापूर्वक, स्वतन्त्रतापूर्वक तथा पूर्णतया अपने तरीके से जैसा भी जीवन जीना चाहते हैं वैसा जीवनयापन, अपनी बौद्धिक क्षमता का अनुसरण करते रहना, विशिष्ट सांस्कृतिक गुणों का विकास करते हुए उच्चतम पूर्णता को प्राप्त करना और इस तरह साधारण मानव स्वीकृति तथा मानवीय संस्कृति के विकास के लिए क्या उच्चतम है? तथा क्या सुन्दरतम हैं? के साथ सहयोग करना आदि । टैगोर ने एक संदेश दिया था जिसे तत्कालीन समय के बहुत-से बौद्धिक नेताओं द्वारा स्वीकार किया गया और स्टॉकहोम की साहित्य अकादमी, जिसने उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया था, द्वारा सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित किया गया।
टैगोर द्वारा इण्डियाज प्रेयर शीर्षक के अंतर्गत रचित कविता में उनकी देशप्रेम की संकल्पना का संक्षिप्त वर्णन मिलता है। टैगोर इस तथ्य के प्रति संवेदनशील थे कि देश के लिए निरंकुश शासन “संपूर्ण देश के ऊपर अत्याचार है ।” एक राष्ट्र जो कि स्वयं अनैतिकता को बढ़ावा देता है वह देश की अखण्डता को सड़क पर ला देता है; एक राष्ट्र जो स्वीकार करता है कि लूट-मार व चोरी-डकैती ही राष्ट्रवाद है तो वह अपने आदर्शों को स्वयं विकृत कर देता है। टैगोर के राष्ट्रवाद का सिद्धान्त अमेरिका के राष्ट्रपति स्वर्गीय अब्राहम लिंकन के शब्दों को याद दिलाता है कि, “किसी के प्रति ईर्ष्या व द्वेष मत रखो, सभी के प्रति दयालु बनो, अच्छाई के प्रति अडिग रहो और जैसा ईश्वर हमें अच्छा देखने का अधिकार प्रदान करता है उसे स्वीकार करो….तो आओ हम अपना कार्य पूर्ण करने के लिए संघर्ष करें।”
शिक्षा पर विचार
रवीन्द्रनाथ टैगोर एक दार्शनिक का जीवन व्यतीत करते थे और उन्होंने अपने शिक्षा के सिद्धांत को भी इसी के अनुसार आकार प्रदान किया था। सामान्यतः शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को अपने जीवन में उतारने के स्थान पर व्यावसायिक दक्षता को ग्रहण करने की प्रवृत्ति अधिक रहती है। टैगोर इस प्रकार की शिक्षा को अधूरा मानते थे ।
Rabindranath Tagore | रबीन्द्रनाथ टैगोर ने जीवन में सत्य पर आधारित शिक्षा को महत्व दिया। अविद्या बुद्धि को भ्रमित करती है। इसीलिए बुद्धिमान व्यक्ति का कथन है कि, “अविद्या से स्वयं को मुक्त रखो, सच्ची आत्मा को जानो तथा अपनी आत्मा को मायाजाल में जकड़े जाने से सुरक्षित रखो।”
Rabindranath Tagore | रबीन्द्रनाथ टैगोर ने महसूस किया कि बच्चों को शिक्षित करना एक महत्वपूर्ण कार्य है जिसके द्वारा एक राष्ट्र का निर्माण होता है। वह प्रत्ये मानव समुदाय को इस रूप में प्रशिक्षित करना चाहते थे जिससे शक्ति, स्वतन्त्रता तथा न्याय का महत्व जीवन में बढ़ता जाए। इसी के अनरूप वह अपने विद्यालय में स्वतन्त्रता का वातावरण बनाना चाहते थे, सहानुभूमि एंव सेवा टैगोर के शिक्षा सिद्धांत के प्रमुख आदर्श थे।
टैगोर की शिक्षा सिद्धान्त का विस्तार मनुष्य के व्यक्तित्व विकास की संगतता से था और वे इसी के अनुरूप सामाजिक सुधार करने की इच्छा रखते थे। केवल किताबों के ज्ञान से ही बच्चों की रुचियों व इच्छाओं का पूर्णतया विकास नहीं किया जा सकता। क्योंकि, शब्दों के जाल में मस्तिष्क स्वयं को खिन्नता की अवस्था में पाता है। इसके परिणामस्वरूप हमें अपूर्ण, अनुचित तथा अरुचिकर शिक्षा से शैक्षिक डिग्री तो प्राप्त हो सकती है पर स्वयं के नव-निर्माण में कोई शक्तिशाली रूप नहीं दे पाते है। टैगोर के अनुसार, बच्चों को किताबी ज्ञान के अतिरिक्त समुचित शिक्षा जब तक प्रदान नहीं की जाती तब तक कोई भी राष्ट्र न तो जीवंत रह सकता है और न ही सुदृढ़ हो सकता है। विदेशी शासकों द्वारा स्वयं के राजनीतिक विचारों के अनुरूप ही किताबी ज्ञान पर बल दिया गया है।
राजनीति एवं ब्रिटिश शासन पर विचार
कवि के रूप में टैगोर
टैगोर का सांस्कृतिक योगदान
संस्कृत में निबंध पढ़ने के लिए पढ़ें —–संस्कृत निबंध motivenews.net
दादाभाई नौरोजी कौन थे, सिद्धांत, जयंती, जन्म तारीख, मृत्यु, राजनीतिक सफर, कैरियर, Dadabhai Naoroji Biography History Quotes In Hindi, date of birth, birth place, death, political journey । ये बहुत ही समाज सुधारक और समाज में फैली बुराईयों के घोर विरोधी थे । ये जहां से पढ़े थे उसी कॉलेज में अध्यापक नियुक्त कर दिए गए थे ।
Dadabhai Naoroji Biography in Hindi
1
नाम
दादाभाई नौरोजी
2
पिता का नाम
पलंजी डोर्डी
3
माता का नाम
मन्नेक बाई नैरोजी
4
जन्म तिथि
4 सितंबर 1825
5
जन्म स्थान
बॉम्बे भारत
6
पत्नी का नाम
गुलबाई
7
निवास स्थान
लंदन
8
पार्टी का नाम
लिबरल पार्टी
9
मृत्यु
30 जून 1917
10
अन्य पार्टी
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
11
शिक्षण संस्थान
एलफिंस्टन इंस्टीट्यूट
Dadabhai Naoroji Biography
दादाभाई नौरोजी का जीवन परिचय
इनका जन्म 4 सितंबर, 1825 में हुआ । विश्वविद्यालयों की स्थापना के पूर्व के दिनों में एलफिंस्टन इंस्टीट्यूट में इन्होंने शिक्षा पाई जहां के ये मेधावी छात्र थे। उसी संस्थान में अध्यापक के रूप में जीवन आरंभ कर आगे चलकर वहीं वे गणित के प्रोफेसर हुए जो उन दिनों भारतीयों के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में सर्वोच्च पद था। Dadabhai Naoroji Biography
पारसियों के इतिहास में अपनी दानशीलता और प्रबुद्धता के लिए प्रसिद्ध ‘कैमास’ बंधुओं ने दादाभाई को अपने व्यापार में भागीदार बनाने के लिए आमंत्रित किया। तदनुसार दादाभाई लंदन और लिवरपूल में उनका कार्यालय स्थापित करने के लिए इंग्लैण्ड गये। विद्यालय के वातावरण को छोड़कर एकाएक व्यापारी बन जाना एक प्रकार की अवनति या अवपतन समझा जा सकता है, परन्तु दादाभाई ने इस अवसर को इंग्लैण्ड में उच्च शिक्षा के लिये जाने वाले विद्यार्थियों की भलाई के लिए उपयुक्त समझा।
इसके साथ ही साथ उनका दूसरा उद्देश्य प्रशासकीय संस्थाओं का अधिक से अधिक भारतीयकरण करने के लिये आंदोलन चलाने का भी था। जो विद्यार्थी उन दिनों उनके संपर्क में आए और उनसे प्रभावित हुए उनमें फिरोजशाह मेहता, मोहनदास करमचन्द गांधी और मुहम्मद अली जिन्ना का नाम उललेखनीय है। 1867 में अपने मित्रों के साथ मिलकर लंदन इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की।
1869 में जब वह भारत वापस आए तो बम्बई में ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन की स्थापना की। बाद में उन्होंने बम्बई में ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन की शाखा को स्थापित किया। 1873 में कुछ समय के लिए दादाभाई ने बड़ौदा रियासत के दीवान पद पर भी काम किया। इसी वर्ष उन्होंने भारतीय वित्त पर फॉसेट प्रवर समिति के समक्ष बयान दिया।
राजनीतिक जीवन
1875 में दादाभाई को बम्बई नगर महापालिका का सदस्य चुना गया तथा 1885 में बम्बई विधायिक परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। 1892 में उदारवादी दल के प्रत्याशी के रूप में उन्हें किंसवरी निर्वाचन क्षेत्र से हाउस ऑफ कामंस के लिए चुना गया तथा 1895 तक वह संसद के निचले सदन के सदस्य रहे।
उनके प्रयासों से ही ब्रिटिश संसद के निचले सदन ने एक प्रस्ताव पारित करके आई.सी.एस. की परीक्षा को एक साथ इंग्लैण्ड व भारत दोनों स्थानों पर कराने की सिफारिश की थी। 1897 में दादाभाई ने भारतीय वित्त एवं व्यय पर वेल्वे आयोग के समक्ष अपने विचार रखे तथा सरकार की भारत विरोधी वित्त नीति की कटु आलोचना की।1885 में कांग्रेस की स्थापना होने पर दादाभाई नौरोजी कांग्रेस के साथ जुड़ गये।
कांग्रेस के साथ अपने दीर्घकालीन संपर्क में दादाभाई ने तीन बार 277अध्यक्ष के रूप में उसका मार्गदर्शन किया। प्रथम बार 1886 में कलकत्ता अधिवेशन के अध्यक्ष बने। तत्पश्चात् 1893 में लाहौर अधिवेशन की अध्यक्षता की तथा 1906 में पुनः कांग्रेस का अध्यक्ष बन कर उन्होंने कांग्रेस की अवश्यम्भावी फूट को एक वर्ष के लिए टाल दिया। दादाभाई नौरोजी की राजनीतिक विचारधारा नरमदल कांग्रेसी की विचारधारा थी।
उन्हें अंग्रेजों की न्यायप्रियता में दृढ़ विश्वास था। वह स्वीकार करते थे कि अंग्रेजी राज्य की स्थापना से भारत अनेक रूप में लाभान्वित हुआ है। दादाभाई की यह मान्यताएं जीवन के कटु यथार्थ को उनकी आंखों से ओझल नहीं कर सकीं। उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि वर्तमान शासन प्रणाली भारतीयों के लिए विनाशकारी तथा निरंकुश हैं।
दादा भाई का अंग्रेजो के प्रति दृष्टिकोण
दादाभाई ने अंग्रेजों से जिस नीति परिवर्तन की आशा की थी वह फलीभूत नहीं हुई। उसका परिणाम यह निकला कि अंग्रेजी शासन के प्रति दादाभाई के दृष्टिकोण में ही परिवर्तन आ गया।भारतीय राष्ट्रवाद के लिए दादाभाई नौरोजी की सबसे बड़ी सेवा थी कि उन्होंने साम्राज्यवाद के आर्थिक शोषण का पर्दाफाश किया।
अपनी पुस्तक पॉवर्टी एण्ड अब्रिटिश रूल इन इण्डिया में उन्होंने आर्थिक निर्गत या निकासी के सिद्धांत को तथ्य व तर्कों के आधार पर प्रतिपादित किया। उन्होंने बताया कि अंग्रेज चार तरह से भारत का धन लूट कर अपने देश ले जा रहे हैं।
यह चार तरीके थे-
(i) ब्रिटिश अधिकारियों के पेंशनों का भुगतान ।
(ii) ब्रिटिश फौजों के खर्च के लिए युद्ध विभाग को भुगतान।
(iii) भारत सरकार का इंग्लैण्ड में व्यय ।
(iv) ब्रिटिश व्यावसायिक वर्गों द्वारा भारत में की गई कमाई का एक हिस्सा इंग्लैण्ड भेजकर ।
दादाभाई ने जनसंख्या की वृद्धि अर्थशास्त्र के नियमों के कार्य करने के तरीके को भारत की गरीबी के लिए जिम्मेदार नहीं माना। अपने लंबे जीवन में दादाभाई ने देश की सेवा के लिये जो बहुत से कार्य किए उन सबका वर्णन करना स्थानाभाव के कारण यहां संभव नहीं है किंतु स्वशासन के लिये अखिल भारतीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1906) में उनके द्वारा की गई मांग की चर्चा करना आवश्यक है।
उन्होंने अपने भाषणों में ‘स्वराज्य’ को मुख्य स्थान दिया। अपने भाषण के दौरान उन्होंने कहा, “हम कोई कृपा की याचना नहीं कर रहे हैं, हमें तो केवल न्याय चाहिए। आरंभ से ही अपने प्रयत्नों के दौरान मुझे इतनी असफलताएं मिली हैं जो एक व्यक्ति को निराश ही नहीं बल्कि विद्रोही भी बना देने के लिये पर्याप्त थीं, पर मैं हताश नहीं हुआ हूं और मुझे विश्वास है कि उस थोड़े से समय के भीतर ही, जब तक मैं जीवित हूं सद्भावना, सच्चाई तथा समान से परिपूर्ण स्वायत्त शासन की मांग को परिपूर्ण करने वाला संविधान भारत के लिये स्वीकार कर लिया जाएगा। उनकी यह आशा उस समय पूरी हुई जब वे सार्वजनिक जीवन से अवकाश ग्रहण कर चुके थे।
पूर्व और पश्चिम में कांग्रेसी कार्यकर्ता तथा उनके मित्र भारत की नई पीढ़ी की आशाओं के अनुसार संवैधानिक सुधारों को मूर्त रूप देने के लिये प्रस्ताव तैयार करने में व्यस्त थे । परंतु 20 अगस्त, 1917 की घोषणा के दो माह पूर्व दादाभाई की मृत्यु हो चुकी थी।
Mahatma Gandhi ,मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात राज्य के एक छोटे से शहर पोरबन्दर में हुआ था। इनके पिता का नाम करमचन्द तथा माता का नाम पुतलीबाई था। गांधी जी के पिता पोरबंदर, राजकोट तथा बांकानेर रियासतों के दीवान रहे। इनकी प्रथमिक शिक्षा राजकोट में हुई तथा 1881 में इनका विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ।
1884-85 में कुसंगतिवश इन्होंने चोरी-छिपे मांस भक्षण किया किंतु इनका सत्यवादी मन इसे छिपा नहीं सका और अपने माता-पिता के समक्ष अपने इस कृत्य के लिए क्षमायाचना कर प्रायश्चित किया अर्थात् असत्य को त्याग कर उन्होंने सत्य का अंगीकरण किया।
Mahatma Gandhi ji की शिक्षा
गांधी जी 7 वर्ष की आयु में स्कूल गये। उन्होंने 1888 में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की और उच्च शिक्षा के लिए भावनगर गये लेकिन वे वहां पर जम नहीं पाये। उस समय उनके एक मित्र मावजी दवे ने गांधी जी को इंग्लैंड जाने का परामर्श दिया।
Mahatma Gandhi जी 4 सितम्बर, 1888 को बैरिस्टर की पढ़ाई हेतु बम्बई से इंग्लैंड गए। आरंभ में वे एक भद्र अंग्रेज पुरुष जैसे दिखने के लिए बहुत चिन्तित थे और इसलिए उन्होंने 3 महीने तक नाच, फ्रांसीसी भाषा एवं अच्छा भाषण देने की कला सीखने का प्रयास किया, लेकिन इस क्षेत्र में वे असफल रहे। इसके बाद उन्होंने सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करने, भोजन स्वयं बनाने व पढ़ाई के प्रति ध्यान देना आरंभ किया।
आरम्भ में इंग्लैंड के वातावरण के अनुसार ढलने में विफल रहने के उपरांत उन्हें शराब, स्त्री तथा मांसाहार से दूर रहने के अपनी माताजी को दिए अपने तीन वचनों की याद आई तथा उन्होंने इसके लिए पश्चाताप भी किया और शाकाहार को अपने जीवन का अंग बना लिया।
Mahatma Gandhi जी ने ब्रह्मवादियों को अपना मित्र बनाया व श्रीमती एनी बेसेन्ट और मादाम बलावत्सकी से परिचित हुए। इस प्रकार उनका झुकाव भारतीय दर्शन व धार्मिक पुस्तकों की ओर हुआ। उन्होंने बाइबल का अध्ययन किया और एक नया अनुभव प्राप्त किया तथा वे उसके दर्शन से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने एडविन आर्नोल्ड की पुस्तकों सांग ऑफ सिलेस्टल तथा लाइट ऑफ एशिया का गहन अध्ययन किया।
Mahatma Gandhi जी ने भागवत गीता को आध्यात्मिक कोष के रूप में देखा। भिन्न-भिन्न धर्मों व सम्प्रदायों के लोगों के सम्पर्क में आने तथा अनेक प्रकार की धार्मिक पुस्तकें पढ़ने के बाद गांधी जी ने कहा कि उनके मन की ‘नास्तिकता रूपी रेगिस्तान’ की दीवार ढह गई है। वे 1891 में भारत वापस आ गये।
दक्षिण अफ्रीकाः
गांधी जी के बम्बई पहुंचने के पूर्व ही उनकी माताजी का देहान्त हो गया। पिता जी का देहान्त छह वर्ष पहले हो ही गया था। भारतीय कानून का अध्ययन नहीं करने के कारण उन्हें अदालत में प्रैक्टिस करते समय परेशानी महसूस होने लगी। उसी बीच पोरबन्दर के एक व्यापारी ने उनके बड़े भाई को पत्र लिख कर प्रस्ताव दिया कि दक्षिण अफ्रीका में उनके व्यापार से संबंधित एक दीवानी मुकदमे में गांधी जी को व्यस्त कर दिया जाये। उस समय वे 24 वर्ष के भी नहीं थे। आरंभ में वह एक वर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका गये लेकिन बीच-बीच में कुछ समय को छोड़कर उन्होंने 21 वर्ष (1893-1914) तक वहां निवास किया।Mahatma Gandhi
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 22 मई, 1894 को गांधी जी को सचिव पद पर मनोनीत किया। 1896 के मध्य में वे भारत आए तथा 6 महीने रुकने के बाद अपनी पत्नी व 2 बच्चों के साथ पुनः दक्षिण अफ्रीका वापस चले गये। बोर युद्ध में, यद्यपि गांधी की सच्ची सहानुभूति बोरों के साथ थी पर ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन नागरिक होने के कारण उन्होंने अंग्रेजों के पक्ष में रहने का निर्णय लिया।
गांधी जी 1901 में भारत वापस आ गये। वापस आने के कुछ दिन बाद उन्होंने कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। दक्षिण अफ्रीका संबंधी गांधी द्वारा प्रस्तुत संकल्प बिना किसी पूर्व सूचना के कम समय में ही सर्वसम्मति से पारित हो गया और यह जंगल की आग की तरह फैल गया, जिसे सुनकर व पढ़कर गांधी को कष्ट हुआ। शीघ्र ही वे एक भ्रमण के लिए निकल पड़े और रंगून, बनारस, आगरा, जयपुर व पालनपुट आदि की ट्रेन से तृतीय श्रेणी में यात्रा करते हुए राजकोट पहुंचे। 1902 के अन्त में वे पुनः दक्षिण अफ्रीका गए।
भारत छोड़ने से पहले गांधी ने सोचा था कि वे कुछ ही महीने वहां रहेंगे पर वे पूरे 12 वर्ष तक दक्षिण अफ्रीका में रहे। सर्वप्रथम गांधी जी ने वहां पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रचलित वंशवाद के अत्याचारों के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन के माध्यम से लड़ने का प्रयास किया। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए उन्होंने ‘फीनिक्स फार्म’ में रहने वाले समुदायों के विचारों पर एक प्रयोग किया।
बाद में 1910 में उन्होंने एक ‘टॉलस्टॉय फार्म’ की स्थापना की। वहां के निवासी शाकाहारी थे और इस प्रयोग को उन्होंने अपने प्रतिदिन के कार्यकलापों में स्थान दिया। यद्यपि कोई भी संघर्ष अपने उद्देश्य प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाया तथापि गांधी जी ने निश्चित रूप से बहुमूल्य अनुभव प्राप्त किये।Mahatma Gandhi
भारत में वापसी
9 जनवरी, 1915 को गांधी जी और कस्तूरबा गांधी बम्बई पहुंचे। उनके स्वागत में फिरोजशाह मेहता की अध्यक्षता में एक नागरिक अभिनन्दन की तैयारी की गई, जिसमें हर समुदाय के लोगों ने भाग लिया। 1915 में ‘फीनिक्स’ व ‘टॉलस्टॉय’ फार्मों के अनुरूप उन्होंने अहमदाबाद के पास ‘कोचर्ब’ में किराए के मकान में ‘सत्याग्रह आश्रम’ की स्थापना की, जिसे शीघ्र ही उन्होंने वहां से हटाकर साबरमती नदी के किनारे स्वयं की जमीन पर स्थापित किया। वह 16 वर्षों तक वहां रहे। स्वतन्त्रता आंदोलन के अधिकांश सक्रिय नेताओं ने अपने राजनीतिक जीवन की शिक्षा इसी आश्रम से ग्रहण की। भारत आने पर वे गोपाल कृष्ण गोखले के संपर्क में आए। जिनके विचार व चिन्तन बिल्कुल उनके चिन्तन के अनुरूप थे।
लोगों के वास्तविक जीवन के बारे में जानने के लिए उन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण किया। राजनैतिक कार्यकर्ताओं से लेकर निम्न से निम्न वर्ग के लागों से मिलने के बाद जब गांधी जी ने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया तब सामाजिक समस्याओं को समझने के लिए उन्होंने स्वयं को व्यस्त रखा और उनका समाधान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की तरफ से नहीं बल्कि अपने तरीके से करने का प्रयास किया।
प्रथम सत्याग्रहः
1916 में लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान बिहार के एक किसान राजकुमार शुक्ला ने उत्तरी बिहार के चम्पारण जिले में भ्रमण हेतु निवेदन किया, जहां बटाई पर नील की खेती करने वाले किसानों पर खेतों के अंग्रेज मालिक बहुत बेदर्दी से अत्याचार कर रहे थे। चम्पारण के सत्याग्रह ने 28 लाख किसानों को प्रभावित किया। धीरे-धीरे संघर्ष ‘तिनसुखिया’ के चारों ओर केन्द्रीभूत हो गया क्योंकि वे एक शताब्दी से अंग्रेजों के अत्याचार को झेल रहे थे।
अंग्रेज मालिकों ने ऐसा नियम बना रखा था कि जिसके अनुसार नील की खेती का सिर्फ एक-तिहाई हिस्सा काश्तकारों को मिल पाता था और शेष फसलों की खेती का हिस्सा जबरदस्ती वे वसूल कर लेते थे। इस प्रकार किसानों को कुछ भी फायदा नहीं रहता था।
गांधी जी ने घोषणा की कि वे खेत मालिकों को शत्रु के रूप में नहीं देख रहे हैं। यह घोषणा बहुत महत्वपूर्ण थी। उन्होंने सरकार को किसानों के कष्ट निवारण के लिए एक आयोग स्थापित करने के लिए बाध्य कर दिया। गांधी जी भी उस आयोग के सदस्य थे। यद्यपि स्पष्ट रूप से खेत मालिकों के किसानों के प्रति क्रूरता व उदण्डता के व्यवहार के अनेक प्रमाण व गवाह थे।
गांधी जी ने घोषणा की कि अतीत में जो बीत गया सो बीत गया उससे कोई मतलब नहीं पर वर्तमान समय में वे अपनी क्रूरता व अत्याचारों को संतोषजनक ढंग से बंद कर दें। इस प्रकार वे खेत के मालिकों पर विजय प्राप्त कर सके। उन्होंने ज्यादा क्षति पूर्ति के लिए भी हठ नहीं किया, उन्होंने कहा कि किसानों को कुल मूल्य का कम से कम 25 प्रतिशत वापिस कर दिया जाए और खेत मालिक यह गारंटी दें कि किसानों से अब जबरदस्ती वसूली नहीं की जाएगी। दोनों तरफ से एक संतोषजनक समझौता हुआ और सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि किसानों को खेत मालिकों की क्रूरता व निष्ठुर शासन से राहत की सांस मिली।
Mahatma Gandhi ने शीघ्र ही अहमदाबाद के मिल श्रमिकों का भी प्रश्न उठाया जिनकी मजदूरी बहुत कम थी। मजदूरों को उचित मजदूरी दिलाने के संघर्ष में अनुसूइया बाई ने अपने करोड़पति भाई के खिलाफ गांधी का साथ दिया। गांधी जी ने एक हड़ताल का संचालन किया और मजदूरों में एकता हेतु अनशन किया। अन्त में, मिल-मालिकों को झुकना पड़ा व इस तरह निर्णय मजदूरों के पक्ष में हुआ।
उसके बाद गांधी जी खेड़ा गये। यहां के गरीब किसान पहले ही ज्यादा करों के बोझ से दबे हुए थे और दूसरी ओर फसल बर्बाद हो जाने से अकाल से लड़ रहे थे। सरकार को मजबूरन यह घोषणा करनी पड़ी की जमीन की मालगुजारी सिर्फ वही किसान देंगे जो कि लगान देने में सक्षम होंगे। एक बार फिर सत्याग्रह आन्दोलन ने किसानों को सत्ताधारियों की क्रूरता व भय से छुटकारा दिलाने में मदद की।
असहयोग आंदोलनः
प्रथम विश्व युद्ध में भारत के लोगों और गांधी ने ब्रिटेन का साथ इसलिए दिया कि युद्ध की समाप्ति के बाद भारत की स्वय की सरकार बनाने में ब्रिटेन स्वीकृति दे देगा। लेकिन वास्तव में क्या घटित हुआ, भारतीयों की स्व-शासन की आशाओं के विपरीत ब्रिटिश सरकार 1919 में ‘रॉलेट एक्ट’ पारित करवा दिया । जिसके नियम बहुत ही सख्त कठोर व हर कदम पर रुकावट डालने वाले थे।
इस अधिनियम से लोगों में अत्यंत तनाव एवं रोष व्याप्त हो गया और इसका सबसे दर्दनाक काण्ड 11 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में हुआ नरसंहार था जिसमें जनरल डायर ने निहत्थी भीड़ पर गालियां चलाने के आदेश दिए। इस घटना में 1500 से अधिक निर्दोष भारतीय मारे गये।
इस दर्दनाक घटना की जांच के लिए गठित ‘हण्टर आयोग’ द्वारा भारत के लोगों के पक्ष में रिपोर्ट देने के बावजूद उनके दुःखों पर मलहम लगाने का काम नहीं किया। यहां तक कि अंग्रेजों ने इस भयानक घटना के पश्चात पश्चाताप का एक शब्द भी नहीं बोला। उसी समय गांधी ने इस अधिनियम की खिलाफत करने के लिए निर्देश जारी कर दिए। गांधी जी ने सोचा कि यही अवसर है जब कि हिन्दुओं औ मुसलमानों में एकता का सामंजस्य लाकर ‘अहसयोग आंदोलन’ के माध्यम से अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया जाए।
अप्रैल 1920 में गांधी जी ने बम्बई में यह घोषणा की कि यदि ‘रॉले अधिनियम’ वापस नहीं लिया गया तो शासकों के साथ रहना असम्भव होगा पहली बार उन्होंने अंग्रेजों की आलोचना की यद्यपि यह केवल एक चेतावनी थी तथापि ब्रिटेन से हर तरह का सम्बन्ध तोड़ने का विचार किया गया।
कुछ सप्ताह बाद 1 अगस्त, 1920 को वायसराय को लिखे एक पत्र में उन्होंने कह कि, “मैं ब्रिटिश सरकार की न तो इज्जत कर सकता है और न ही उससे लगाव रख सकता हूं क्योंकि वे अपने किये अन्यायपूर्ण कार्यों से बचने व लिए गलतियों पर गलतियां किये जा रहे हैं।” इस पत्र के साथ ही उन्होंने असहयोग आंदोलन के माध्यम से सरकार का घेराव करना शुरू कर दिया बहुत दिनों तक प्रतीक्षा करने के बाद भी सरकार की तरफ से न तो को सकारात्मक संकेत आया और न ही सरकार ने झुकने का नाम लिया। उसी दिन राष्ट्रीय आंदोलन के प्रतिष्ठित नेता बाल गंगाधर तिलक का देहान्त हो गया।
वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने अगस्त 1920 में असहयोग आंदोलन पर टीका-टिप्पणी करते हुए दोषारोपण किया कि, “यह आन्दोलन सबसे मूर्ख लोगों की मूर्ख योजना है।” गांधी जी ने इसे हानिरहित असाधारण आन्दोलन के रूप में देखा पर आन्दोलन की बढ़ती गति को सरकार अपने हिंसात्मक तरीकों से रोक नहीं पायी।
Mahatma Gandhi जी का असहयोग आन्दोलन का विचार साधारण लगते हुए भी तत्कालीन समय में एक बहुत ही शक्तिशाली पुकार थी। दिसम्बर 1920 के नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में गांधी जी ने वादा किया कि यदि पूरा भारत असहयोग व अहिंसात्मक आन्दोलन के अनुरूप चल पड़ा तो 12 महीने के अन्दर भारत की अपनी सरकार होगी। गांधी जी ने इस संदेश को पूरे राष्ट्र को प्रेषित किया।
उन्होंने असहयोग आंदोलन को इस रूप में चलाया कि जबतक सभी लोग इसे अपने व्यक्तिगत जीवन में उतार कर नहीं चलेंगे तब तक ‘स्वराज’ प्राप्त नहीं हो सकता। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए मानवता की सेवा हेतु मिले अपने दो पुरस्कार ‘दक्षिण अफ्रीका का युद्ध पदक ‘व ‘केसर-ए-हिन्द’ स्वर्ण पदक वायसराय को वापस लौटा दिए।
जनवरी 1922 में ‘बारदोली सत्याग्रह’ व एक ‘रचनात्मक योजना’ को स्थापित किया गया। लॉर्ड रीडिंग को एक सप्ताह का नोटिस दिया गया कि यदि इस बीच सरकार की ‘प्रतिरोध नीति’ में परिवर्तन नहीं किया गया तो हम वृहद स्तर पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर देंगे। 1 फरवरी, 1922 को गांधी ने बारदोली में सविनय अवज्ञा आंदोलन आरम्भ कर दिया। Mahatma Gandhi
5 फरवरी, 1922 को प्रदर्शनकारियों का एक समूह प्रदर्शन करते हुए उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे चौरी-चौरा में एक पुलिस स्टेशन के सामने से गुजरा। इस प्रदर्शन में पीछे रह गये कुछ लोगों के साथ पुलिस ने गाली-गलौच की व दुव्यर्वहार किया तो उन्होंने स्वयं अपना बचाव किया। उसके बाद पुलिस ने फायरिंग करनी शुरू कर दी, तब प्रदर्शनकारियों की भीड़ उनका विरोध करने हेतु वापस आ गई। गोलियां समाप्त हो जाने के बाद पुलिस ने स्वयं को थाने के अन्दर बन्द कर लिया जिससे क्रोधित प्रदर्शनकारियों ने पुलिस स्टेशन में आग लगा दी। इस घटना 22 पुलिसकर्मी जल कर मर गये। पूरा आंदोलन हिंसा पर उतर आया।
हिंसा रोकने के लिए गांधी जी ने आन्दोलन वापस ले लिया जिससे आन्दोलनकारियों और कांग्रेसी नेताओं में निराशा छा गई। लेकिन गांधी जी ने विचार किया कि जन-समुदाय को तैयार किए बिना असहयोग आंदोलन चलाना एक बहुत बड़ी भूल होगी।
कांग्रेस की कार्यकारी समिति की बैठक गुजरात के बारदोली में 12 फरवरी को हुई, जिसमें गांधी जी की आज्ञा से असहयोग आंदोलन बन्द करने के लिए एक प्रस्ताव पारित हुआ। गांधी जी ने कांग्रेसियों को अपना समय रचनात्मक कार्यक्रमों को पूरा करने में लगाने के लिए प्रेरित किया।
10 मार्च, 1922 को उन्हें गिरफ्तार कर लिए गया। सरकार ने उन पर राजद्रोह का अभियोग लगाया। गांधी जी ने घोषणा की कि बुराई के साथ ‘असहयोग’ करना उतना ही उचित है जितना कि अच्छाई के साथ ‘सहयोग’ करना। गांधी जी को 6 वर्ष के कारावास की सजा दी गई। सितम्बर 1924 में गांधी जी ने जातीय दंगों के विरोध में दिल्ली में मौलाना मुहम्मद अली के घर में 21 दिन का उपवास रखा।
रचनात्मक कार्यक्रम
गांधी जी ने रचनात्मक कार्यक्रम करने का एक दृढ़ निश्चय किया और उसके अनुसार व्यवस्था की, जैसे-चर्खे पर सूत कातना व खादी के कपड़े बुनना, शराब नहीं पीना, छुआछूत की भावना को जड़ समाप्त करना और हिन्दुओं व मुसलमानों को एकता के सूत्र से में बांधना आदि । अपने इन विचारों को प्रचारित करने के लिए गांधी जी ने समस्त भारत का भ्रमण किया। उस समय गांधी जी के लिए सामाजिक व आर्थिक कार्यक्रम बहुत ही महत्वपूर्ण थे।
Mahatma Gandhi जी ने महसूस किया कि समुदायों को राजनीतिक स्तर पर स्वतन्त्रता की बहुत ही आवश्यकता थी। 1928 में ‘साइमन आयोग’ का बहिष्कार किया गया। बारदोली में गांधी जी के सहयोग से सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में कर नहीं देने के सम्बन्ध में एक घेराव किया गया।
1929 में कांग्रेस ने एक संकल्प पारित कर यह घोषणा की कि यदि वर्ष के अंत तक स्व-शासन नहीं दिया गया तो वे पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग करेंगे। गांधी जी एक बार फिर राजनीतिक पटल पर छा गए परन्तु उन्होंने कांग्रेस का अध्यक्ष पद स्वीकार नहीं किया। जवाहर लाल नेहरू अध्यक्ष बनाए गए। लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग की घोषणा कर दी गयी।
सिद्धांत के लिए उपवास
17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैक्डोनॉल्ड ने अनुसूचित जातियों के लिए अलग से निर्वाचन व्यवस्था करने हेतु जातीय पुरस्कार अधिसूचना प्रकाशित की। इस अधिसूचना के विरोध में गांधी जी 20 सितम्बर तक आमरण अनशन पर बैठे। किसी तरह अनेक नेताओं के एकमत प्रयासों के परिणामस्वरूप अनशन के पांचवें दिन ही यरवदा (या पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर हो गए।
दलित जातियों के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था के स्थान पर सीटें आरक्षित कर दी गई। गांधी जी ने 26 सितम्बर को अपना अनशन समाप्त कर दिया। 8 मई, 1933 को गांधी जी ने पुनः 21 दिन का उपवास करने की घोषणा की, पर इस बार यह उपवास सरकार के विरोध में नहीं अपितु आत्मशुद्धि के लिए था ताकि वे शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होकर अपने अनुयायियों के साथ अनुसूचित जातियों की ठीक से सेवा कर सकें। उपवास आरम्भ करने के कुछ दिन बाद ही सरकार ने उन्हें जेल से रिहा कर दिया।
राजनीति से दूर
मई 1934 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन अधिकारिक रूप से वापस ले लिए जाने के साथ ही गांधी जी ने पुनः अपने को सक्रिय राजनीति से दूर कर लिया। 1933 में एक साप्ताहिक पत्रिका हरिजन का प्रकाशन आरम्भ कर दिया, जो कि नियमित प्रयत्नों के कारण पत्रिका यंग इंडिया की तरह सामाजिक बुराइयों व कुरीतियों के खिलाफ प्रसिद्धि पा चुकी थी।
Mahatma Gandhi ने 1934 से लेकर 1940 तक स्वयं को पूर्ण रूप से गांवों के विकास कार्यों में लगा दिया। उनके रचनात्मक कार्यक्रम को कोई भी नाम दे दिया जाए पर उनका मुख्य लक्ष्य था, “स्वराज प्राप्ति के लिए एक स्वस्थ एवं मजबूत राष्ट्र का निर्माण करना।” 1984 में उन्होंने साबरमती आश्रम को एक हरिजन समूह को दे दिया और अपना मुख्यालय ‘वर्धा’ में स्थापित किया। बाद में 1936 में वे निकटवर्ती गांव ‘सेगांव’ में गए जो कि उन्हें जमनालाल बजाज ने उपहार स्वरूप दिया था।
करो या मरो का नारा
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अधीन होने वाले चुनावों में कांग्रेस ने ‘अनिच्छापूर्वक’ भाग लेने की स्वीकृति प्रदान कर दी। इसके लिए कांग्रेस मंत्रिमंडल का भी गठन किया गया किंतु बाद में इसने भारत के युद्ध में भाग लेने की घोषणा के प्रश्न पर त्याग पत्र दे दिया।
Mahatma Gandhi जी इस संकटकाल में सविनय अवज्ञा आंदोलन द्वारा अंग्रेजों के लिए किसी प्रकार का खतरा उत्पन्न करना नहीं चाहते थे किंतु स्व-शासन के मुद्दे पर सरकार की अरुचि से उन्हें काफी निराशा हुई। इसके विरोधस्वरूप लघु स्तर पर सत्याग्रह की शुरूआत हो गई। युद्ध में ब्रिटेन की स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने क्रिप्स मिशन को इस प्रस्ताव के साथ भेजा कि युद्ध के पश्चात् सभी मांगें कार्यान्वित कर दी जाएंगीं। इस मिशन से सभी असंतुष्ट थे । जापान की तरफ से खतरा मंडरा रहा था और गांधी जी का विचार था कि भारत को उसकी नियति पर छोड़ देना चाहिए। अब चाहे भले ही विद्रोह हो पर अंग्रेजी सरकार को यहां से खदेड़ना ही होगा।
8 अगस्त, 1942 को बम्बई में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सम्मेलन में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का संकल्प और गांधी जी के नेतृत्व में वृहद स्तर पर सामूहिक अहिंसात्मक आन्दोलन चलाने का प्रस्ताव पारित किया गया। गांधी जी ने घोषणा की कि, “या तो हम भारत को स्वतंत्र कराएंगे या इसी प्रयास में मर जाएंगे, हमेशा की गुलामी देखने के लिए हम जिन्दा नहीं रहेंगे।” शीघ्र ही गांधी जी अन्य समस्त शीर्ष कांग्रेसी नेताओं के साथ गिरफ्तार कर लिये गए। विरोध व हिंसा की आग चारों तरफ भड़क उठी।
महात्मा गांधी जी की मृत्यु
महात्मा गांधी जी अपना अंतिम उपवास 14 जनवरी, 1948 को शुरू किया । गांधी जी ने घोषणा किया कि उनका यह आमरण अनशन भारत एवम पाकिस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों के अंतःकरण को निर्देशित करेगा। 18 जनवरी 1948 को बाबू राजेंद्र प्रसाद सहित हर समुदाय के 100 लोंगो ने मुसलमानों के विश्वास व जान और माल की रक्षा करने का वचन दिया। 20 जनवरी 1948 को बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभा कर रहे थे , उसी समय मदन लाल ने एक बम फेंक दिया। इससे केवल चार दिवारी को ही क्षति पहुंची । मदन लाल को गांधी जी की इक्षा पर माफ़ कर दिया गया ।
30 जनवरी 1948 को एक सभा के दौरान बिड़ला मंदिर के प्रांगण में नाथू राम गोडसे ने गांधी जी के ऊपर अपने पिस्तौल से तीन गोलियां चलाई । गांधी जी ‘ हे राम ’ शब्द का उच्चारण करते हुए वहीं पर गिर गए और अपना दम त्याग दिया। Mahatma Gandhi
श्री अरविंद घोष Arvind Ghosh (1872-1950 ) : श्री अरविंद घोष आधुनिक भारत केएक महान विचारक व दार्शनिक थे। वह स्वतंत्रता आंदोलन के भी एक महान व प्रसिद्ध नेता थे जो बाद में एक योगी व रहस्यपूर्ण व्यक्ति बन गये थे।
Biography of Arvind Ghosh
श्री अरविंद घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 को पश्चिम बंगाल के कोन नगर हुआ था। दार्जलिंग के लोरियो कान्वेंट स्कूल से अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद वह उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड चले गये। उन्होंने लंदन के सेंटपॉल स्कूल में 1884 में प्रवेश लिया। सीनियर क्लासिकल स्कॉलरशिप प्राप्त करने के बाद 1890 में उन्होंने किंग कालेज कैंब्रिज में दाखिला लिया।
भारत वापस आने के बाद उन्होंने संस्कृत और भारतीय संस्कृति तथा धर्म व दर्शन का गहन अध्ययन किया और उसके बाद 1910 तक बंगाल कांग्रेस में रहते हुए देश को आजादी दिलाने के लिए तथा ब्रिटिश सरकार को जड़मूल से नष्ट कर देश से बाहर खदेड़ने के लिए पूरे भारतवासियों से आग्रह किया कि सामानों तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा चलायी गयी किसी भी योजना या अभियान का जमकर विरोध व बहिष्कार करें।
उनकी इस असीम सक्रियता को देखते ब्रिटिश सरकार ने 1910 में उन्हें अलीपुर जेल में एक हुए वर्ष के लिए बंद कर दिया।अपनी जेल यात्रा के दौरान श्री अरविंद घोष को आध्यात्मिक रहस्यमय अनुभव प्राप्त हुआ जो कि उनके ऊपर गहरा व गंभीर प्रभाव छोड़ गया। उसके बाद उन्होंने एक योगी की तरह जिंदगी जीने के लिए जीवन शैली में परिवर्तन कर लिया तथा तमिलनाडु के पाण्डिचेरी नामक स्थान पर करने के लिए चले गये और वहां पर एक आश्रम की स्थापना की।
Arvind Ghosh का दर्शन सिद्धांत एक माता के सदृश है जो कि हर तरह से सहनशीलत है। अवली को एक सार्वभौमिक आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में 1968 में स्थापित किया गया। अरविंद ने एक दार्शनिक पत्रिका द आर्य का प्रकाशन शुरु किया ।
Books of Arvind Ghosh
द आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी, द सिन्थिसिस ऑफ योग व द लाइफ डिवाइन आदि।
अरविन्द घोष का राजनैतिक सफर
श्री अरविंद( Arvind Ghosh ) के राजनीतिक व दर्शन के चिंतन को दो अलग-अलग धारा- के रूप में नहीं बांटा जा सकता है क्योंकि उनके सभी राजनैतिक चिंतन का आधार आध्यात्मिक व नैतिक सिद्धांत के ऊपर टिका हुआ है। जिसके अंतर्गत उनके दर्शन का चिंतन रूप छिपा हुआ है। इस प्रकार अरविंद का राष्ट्रवाद साधारण रूप में केवल एक राजनैतिक योजना या बौद्धिक विचार को ही समाहित नहीं किये हुए है बल्कि ईश्वर प्रदत्त एक धर्म का आध्यात्मिक प्रयास भी है। राष्ट्रवाद एक सक्रिय धर्म का रूप है जिसका मुख्य या प्रधान हथियार आध्यात्मिक है।
अरविंद घोष का विश्वास था कि भारत के राष्ट्रीय आंदोलन को एक दिन अवश्य सफलता प्राप्त होगी। अतः उनकी नजर में स्वराज केवल राजनैतिक स्वतंत्रता ही नहीं है। स्वराज का अभिप्राय है – आध्यात्मिक मार्ग दर्शन के अंतर्गत पूरी मानवता को समाहित कर लेना। राष्ट्रीय उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए अरविंद ने सत्याग्रह आंदोलन के साथ ही साथ सक्रिय रूप से शक्ति का भी समर्थन किया। एक राष्ट्र के लिए राजनैतिक स्वतंत्रता का महत्व होता है तथा राष्ट्र की सुरक्षा हर कीमत पर करनी चाहिये, चाहे उसके लिए कोई भी उचित माध्यम अपनाना पड़े।
श्री अरविंद घोष इस बात से पूरी तरह सहमत थे कि राष्ट्र की प्रतिष्ठा व शान के लिए प्रत्येक व्यक्ति को जी-जान से अपना जीवन पूर्णतया समर्पित करना चाहिए। केवल राष्ट्र के साथ स्वयं अपनी पहचान बनाकर ही कोई व्यक्ति किसी तरह की उपलब्धि प्राप्त कर सकता है। उनके दृष्टिकोण में मात्र व्यक्तियों का समूह ही राष्ट्र नहीं है। राष्ट्र एक संगठन के रूप में है जैसा कि एक व्यक्ति का अपना अस्तित्व है, उसी तरह राष्ट्र का भी अपना अस्तित्व है।
समाज की गतिविधियां एक व्यक्ति को मानवीय आदर्श प्राप्त करने में मदद करती है। इस तरह समाज का आदर्श मानवीय अस्तित्व के धरातल पर टिका हुआ है।